________________
2201
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 26
|| मंगल-भावना।।
वर्द्धमान स्वामी के शासन में बुन्देलखण्ड मध्यप्रदेश की धरा पर कुडलगिरी (कुण्डलपुर) तीर्थ है, जहाँ श्रीधर केवली ने निर्वाण-श्री की प्राप्ति की थी, ऐसी पवित्र भूमि पर विराजे नाभेय आदीश्वर स्वामी बड़े बाबा जन-जन के हृदय-स्थल पर विराजे हैं, जिनके चरण-कमल बुन्देली के देवता आदिनाथ स्वामी की चरण-निश्रा में मुझ अल्पधी ने आगम-सार-भूत स्वरूप-सम्बोधन ग्रन्थ का परिशीलन लिखने का मंगलाचरण किया; गुरु -प्रसाद से धर्म-प्रयाण-नगरी व संस्कार-धानी जबलपुर के श्री आदिनाथ जिनालय में अक्षय तृतीया वीर निर्वाण संवत् २५३४ को ग्रन्थ परिशीलन लिखना प्रारंभ किया था, आज अष्टम तीर्थ श्री चन्द्रप्रभ स्वामी के पाद-मूल में श्रमणगिरी (सोनागिरी) सिद्ध-क्षेत्र पर स्वरूप-सम्बोधन-परिशीलन ग्रन्थ पूर्ण हुआ, सिद्ध-भूमि की चट्टान प्रशस्त है जहाँ आगे भ. चन्द्रनाथ विराजे हैं, वहीं पश्चिम भाग में स्वरूप सम्बोधन परिशीलन ग्रन्थ पूर्ण हुआ, अन्त में भगवान चन्द्रप्रभ स्वामी के चरणों में वंदना करते हुए निवेदन करता हूँ- हे नाथ! मेरा ज्ञान चारित्र-पूर्वक चन्द्र-तुल्य वर्धमान रहे, जहाँ संयम का प्रारंभ किया था, वहाँ आज ग्रंथ पूर्ण हुआ। इस ग्रंथ परिशीलन में मेरा कुछ नहीं है, गुरु-मुख से जो पूर्वाचार्यों की परंपरा से प्राप्त अर्हत्-सूत्र पढ़े थे, वही इस परिशीलन में हैं, मेरा स्वयं का कुछ नहीं है। ग्रन्थराज महोदधि में कौन पार पा सकता है, पर मात्र श्रुत-भक्ति से युक्त होकर अशुभोपयोग से आत्म-रक्षा हेतु बुद्धि की प्रशस्तता हेतु निर्जरार्थ माँ के याद में क्षमा-प्रार्थी हूँ- हे! भारती! अक्षर-पद-मात्रा में किञ्चित् भी इस अल्पधी के द्वारा कमी हुई हो, तो मुझे क्षमा करें, पुनः आचार्य-प्रवर भट्ट अकलंक स्वामी के चरणारविन्द में नमोस्तु त्रिभक्ति-पूर्वक करते हैं- हे नाथ! आपकी कृति पर जो लिखा है, वह आपका है, मुझ अल्प-ज्ञ का क्या हो सकता है?.... पुनः पुनः देवाधिदेव अरहन्त-देव, श्रुत-देवता, निर्ग्रन्थ-गुरु के पाद-पंकज की वन्दना। इस ग्रन्थ पर परिशीलन के लिए सतना-समाज तथा अन्य सुधी-जनों की प्रार्थना एवं आग्रह रहा, आप ग्रन्थराज पर परिशीलन अवश्य लिखें,