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श्लो. : 26
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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जीवों के मिथ्यात्व का नाश होता है, भव-भ्रमण की उत्पत्ति समाप्त हो जाती है और परमात्म-पद की सम्पत्ति प्राप्त हो जाती है। ___अहो ज्ञानियो! परमात्म-पद की सम्पत्ति कहीं मिल सकती है, तो एक-मात्र सर्वज्ञ-देशना से ही संभव है, अन्य जगह वह सम्पत्ति नहीं मिल सकती, चाहे जीव कहीं भी भटके, रागियों की भाषा में भावों की कलुषता भरी रहती है, जिसका हृदय कालुष्यता से युक्त है, उसके मुख से स्व-पर-कल्याणी वाणी कहाँ उद्घाटित हो सकती है, ध्रुव ज्ञायक-भाव का ज्ञान कराने वाली तो पवित्र जिनवाणी ही है। ___ मनीषियो! जगत् की सम्पूर्ण सम्पदाएँ गौण हैं, वे मात्र बन्ध के साधन ही हैं, न कि मोक्ष का कारण हैं, सारा जगत् ठगाया गया है, लोक की झूठी माया में, पुद्गल के पिण्डों में, चैतन्य-पिण्ड ज्ञान-घन भगवत्-स्वरूप को भूल गया, जगत् के भ्रम में इतना अन्धा हुआ कि परमात्म-सम्पत्ति में तो दृष्टि ही नहीं गई, कारण कि इस अर्थ-प्रधान-युग में उसके पास परमात्म-सम्पत्ति के बारे में विचार करने का वह समय ही नहीं है, परमार्थभूत परमात्म-तत्त्व को सम्पादित करने का भाव भाग गया, लोक-रंजन में आत्म-लीनता का भाव ही जीव को नहीं है। आचार्य-देव की प्रबल करुणा देखो- बार-बार स्वरूप का सम्बोधन प्रदान कर रहे हैं, पच्चीस श्लोकों में भव्यों के लिए द्वादशांग का सार भर दिया है। __सत्यार्थता को समझो, जिनोपदेश भव्यों के लिए ही कार्यकारी है, अभव्यों के लिए नहीं। ज्ञानी! अग्नि की उष्णता पाक की अर्हता वाली मूंग के लिए ही है, पाक-शक्तिविहीन ठर्रा मूंग के लिए नहीं। तत्त्व-देशना तो वही है, जो देशना-लब्धि का कारण बने, जिसमें दर्शन-बोध-चारित्र की शिक्षा ही नहीं है, वह देशना ही नहीं है, मात्र वाचनालय है, जो-कि भव-भ्रमण का ही कारण है, न कि भव-हानि का। भव-हानि व परमार्थ-सिद्धि-दायक वीतराग-वाणी मेरे दुःखों का नाश करे, प्रज्ञा को प्रशस्त करे, अध्यवसाय-भाव का अभाव हो, बोधि-समाधि का लाभ हो और निर्वाण की प्राप्ति हो।।२६।।
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