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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 26
अशुभ होती है?...... हाँ, जिनवाणी तो कभी भी अशुभ नहीं होती, परन्तु जिसप्रकार पथ्य-रहित औषधि भी कष्टकारी हो जाती है, ज्वर-पीड़ित के लिए घृत भी हानिकारक है, उसीप्रकार क्षयोपशम-शून्य व विवेक-रहित पुरुष के लिए अर्हद्वचन हानिकारक हो जाता है; आगम-वचनों पर श्रद्धा करो, विपर्यास करते हुए लोगों के विपाक पर भी ध्यान दिया करो; जो आज घरों व संघों आदि में समन्वय का अभाव दिख रहा है, वह-सब शुद्धि-चतुष्टय के अभाव के कारण है, जैसा कि पूज्यपाद वट्टकेर स्वामी ने कहा
दव्वादिवदिक्कमणं करेदि सुत्तत्थसिक्खलोहेण। असमाहिमसज्झायं कलहं वाहिं वियोगं च।।
-मूलाचार, गा. 171 यदि कोई सूत्र के अर्थ की शिक्षा के लोभ से द्रव्य, क्षेत्र आदि का उल्लंघन करता है, तो वह असमाधि, अस्वाध्याय, कलह, रोग और वियोग को प्राप्त करता है। यदि मुनि सूत्र और उसके निमित्त से होने वाले आत्म-संस्कार-रूप ज्ञान व उसके लोभ से, आसक्ति से पूर्वोक्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की शुद्धि का उल्लंघन करके पढ़ता है, तो मन में असमाधि को अथवा सम्यक्त्व आदि की विराधना-रूप असमाधि को प्राप्त करता है, शास्त्रादि का अलाभ अथवा शरीर आदि के विघात-रूप से अस्वाध्याय को प्राप्त करता है, या आचार्य और शिष्य में परस्पर में कलह हो जाती है अथवा अन्य के साथ कलह हो जाती है अथवा ज्वर, श्वास, कास, भगंदर आदि रोगों का आक्रमण हो जाता है या आचार्य और शिष्य एक-जगह नहीं रह पाते, रूप-वियोग हो जाता है अर्थात् जो मुनि द्रव्यादि की शुद्धि की अवहेलना करते हुए यदि सूत्रार्थ के लोभ से अध्ययन करते हैं, तो उनके उस समय असमाधि आदि हानियाँ होती हैं। पर्वादि के दिनों में सिद्धान्त-ग्रन्थों का श्रवण-पठन भी नहीं करना चाहिए, सामान्य ग्रंथों का वाचन कर सकते हैं। परम-तत्त्व में लीन योगीश्वर सतत श्रुत में लीन रहते हैं, परिणामों को सँभालकर रखने की सुंदर विद्या है अर्हत्-सूत्र-रूप सर्वोदयी देशना । सारे विश्व में जगत् के कल्याण का उदय यदि किसी से होता है, तो वह जिनेन्द्र-देव की वाणी से ही होता है। __ अन्य किसी रागी, वस्त्र-धारियों की राग-मिश्रित वाणी से कल्याण संभव नहीं है, वीतरागता का उदय वीतराग की वाणी से ही होता है, निजात्म-तत्त्व-बोध कराने वाली देशना ही सर्वोदयी देशना है, जिसके श्रवण व पठन-पाठन करने से सम्पूर्ण