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श्लो. : 26
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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ज्ञानियो! हृदय-आँगन को स्वच्छ रखो, वहीं जिन-भारती रहती है, जहाँ विषय-कषाय का कचरा नहीं रहता, विषय-कषाय का अभिनन्दन करने वाले के यहाँ जिन-भारती का सम्मान नहीं होता, जहाँ जिन-मुखोद्भूत वाणी का आदर होता है, वहाँ विषय-कषाय स्वयमेव स्थान छोड़ देते हैं। सम्पूर्ण साधना प्रज्ञा की प्रशस्तता पर है, प्रज्ञा प्रशस्त है, तो शरीर-वाणी-मन आदि सभी प्रशस्त रहते हैं, इसीलिए सर्व-धनों में विद्या-धन को ही श्रेष्ठ कहा गया है, सत्-पुरुषों को विद्या-धन की अनिवार्यतः रक्षा करनी चाहिए। रागी को वैराग्य-दायिनी है श्रुताराधना, वैरागी को चारित्र-दायिनी है श्रुताराधना, चारित्रवान् को समाधि और निर्वाण को देने वाली है श्रुताराधना, इसलिए अहो ज्ञानियो! अध्ययन भी आगमानुसार ही करो, परमात्म-सम्पदा की प्राप्ति चाहिए है, तो जो आचार्य-प्रवर वट्टिकेर स्वामी ने भी कहा है, उसे बड़े समर्पण-भाव से आत्मसात करना चाहिए
पडिलेहिऊण सम्मं दव्वं खेत्तं च कालभावे य। विणय-उवयार-जुत्तेण ज्झेदव्वं पयत्तेण।।
-मूलाचार, गा. 170 अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की सम्यक् प्रकार से शुद्धि करके विनय और उपचार से सहित होकर प्रयत्न-पूर्वक अध्ययन करना चाहिए।
शरीर-गत शुद्धि द्रव्य-शुद्धि है, जैसे- शरीर में घाव, पीड़ा, कुष्ट आदि का नहीं होना। भूमि-गत शुद्धि क्षेत्र-शुद्धि है, जैसे- चर्म, अस्थि, मूत्र, मलादि का सौ-हाथ-प्रमाण भूमि-भाग में नहीं होना। संध्या-काल, मेघ-गर्जना-काल, व्युत्पाद और उत्पात आदि काल से रहित समय का होना काल-शुद्धि है। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि भावों का त्याग करना भाव-शुद्धि है अर्थात् इसप्रकार से क्षेत्र में होने वाली अशुद्धि को दूर करना, उस क्षेत्र से अतिरिक्त क्षेत्र का होना क्षेत्र-शुद्धि है। शरीर आदि का शोधन करना अर्थात् शरीर में ज्वर आदि या शरीर से पीव व खून आदि के बहते समय के अतिरिक्त स्वस्थ शरीर का होना द्रव्य-शुद्धि है, संधि-काल-आदिक अतिरिक्त काल का होना काल-शुद्धि है और कषायादि-रहित परिणमन होना भी भाव-शुद्धि है। प्रयत्न-पूर्वक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को सम्यक् प्रकार से शोधन करके विनय और औपचारिक क्रियाओं से युक्त होकर मुनिराज को गुरु-आचार्यादि के श्री-मुख से सूत्रों का अध्ययन करना चाहिए।
जो साधक व श्रावक उक्त विधि का ध्यान नहीं रखता, वह अनेक प्रकार के अशुभ को प्राप्त होता है। पुनः यहाँ कोई प्रश्न कर सकता है कि जिनवाणी भी कहीं