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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
परिशिष्ट-1
परिशिष्ट-1 स्वरूप-संबोधन-पद्यानुवाद निहालचन्द्र "चन्द्रेश", ललितपुर
गीता छन्द
नमोऽस्तु परमातम को मम, कर्मादिकों से मक्त जो । नमोऽस्तु परमातम को मम, ज्ञानादि-गुण-संयुक्त जो । नमोऽस्तु आत्मोत्पन्न-मय, अक्षय अनन्त स्वभाव को। नमोऽस्तु केवलज्ञान-रूपी, है परम परमात्म जो।। 1 ।। वह आत्मा उपयोग-दर्शन-ज्ञान-मय चैतन्य है। वह क्रमिक कारण व तत् परिणाम से सम्पन्न है। वह ग्राह्य अरु अग्राह्य भी लिखना है, अनादि और अनन्त भी। वह सदा उतपाद् व्यय संयुक्त है पर ध्रौव्य भी।। 2 ।। गुण प्र मे यत्वादि आतम, ज्ञान-दर्शन भिन्न जो। गुण राजते हैं अतः आतम, है अचेतन-रूप तो । गुण ज्ञान-दर्शन युक्त है, चेतन कहा इस दृष्टि से । गुण उक्त चेतन औ' अचेतन, आत्मा में अनादि से ।। 3 ।। आत्मज्ञानं भाविभूतं, क्रमिक समयानंत को। आत्मज्ञायक रूप से, है जानता पर्यायों को। आत्मा को ज्ञान से अति, भिन्नाभिन्न कहा गया । आत्मा ज्ञानेन भिन्नाभिन्न, अपेक्षा कहा गया ।। 4 ।।