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परिशिष्ट-1
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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आत्मा वह ज्ञेय के निज, निज समान कही सही। आत्मा को ज्ञान के न समान, है किंचित् कही। आत्मा अतएव वह न, सर्वथा है सर्वगत । आत्मा अरु सर्व-व्यापी, व्याप्त है न लोक सब ।। 5 ।। वह आत्मा नाना ज्ञान-मय, होते हुये नानाऽपि । वह आत्मा चेतन-स्वभावी, एक होता हुआ भी। वह आत्मा तो सर्वथा से, एक है ना अनेक है। वह अने कान्तात्मक से, एक है व अनेक है ।। 6 ।। वक्तव्य है वह आत्मा, स्व-स्वरूप आदि चतुष्टय से । वक्तव्य नहिं वह आत्मा, पर पर-स्वरूप चतुष्टय से । वक्तव्य न वह आत्मा, एकान्त से है सर्वथा। वक्तव्य है वह आत्मा, एकान्त से न सर्वथा।। 7 || वह आत्मा निज धर्म अनुयोगी, से अस्ति-स्वरूप है। वह आत्मा निज-धर्म-प्रतियोगी, से नास्ति-स्वरूप है। वह ज्ञान-गुण-मय आत्मा, साकार-दष्ट या मूर्ति का। वह आत्मा विपरीत-दृष्ट्या , सर्वथा है अमूर्तिका।। 8|| आत्मा स्वीकारता, चेतन-अचेतन आदि को । आतम-धरम अनुयोगी-प्रतियोगी, जो होते स्वयं को। आत्मा ही बंध का अरु, मोक्ष का कर्ता स्वयं । आत्मा ही बंध करता, मुक्ति-पद पाता स्वयं ।। 9 ।। जीव संसारी शुभाशुभ, कर्म-बंध करे स्वयं । जीव वह निज-कत करम, फल भोक्ता होता स्वयं । जीव वह स्वयमे व ही, नर-नारकादिक में भ्र मे । जीव ही पुरुषार्थ कर, स्वयमेव शिव-रमणी वरे || 10 ||