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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
परिशिष्ट-1
आत्मा जो स्वयं करता, भाव राग-द्वेष को। आत्मा उन भावों से स जता, स्वयं वसु कर्म को। आत्मा तत्फल शुभाशुभ, कत करम भोक्ता स्वयं । आत्मा बहिरन्तोपाय ही, मुक्त कर्मों से स्वयं ।। 11 ।। निज शुद्ध आत्म-स्वरूप पाना, अंतरंग उपाय से । निज शुद्ध आत्म-स्वरूप, सम्यग्दर्श-ज्ञान-चारित्र से । निज शुद्ध आत्म-स्वरूप होगा, प्राप्त हो त्रय एकता। निज शुद्ध आतम-तत्त्व प्रति, श्रद्धान सद्दर्शन कहा।। 12 || सद् ज्ञान वह निज-पर प्रकाशे, दीपवत् त्रयलोक में | सद्ज्ञान निर्णिती सुसम्यक, स्वात्म पर त्रय लोक में । सद् ज्ञान चेतन औ' अचेतन, तत्त्व निश्चय रूप है। सद्ज्ञान तत् कश्चिद् अपेक्षा, प्रमिति पृथक् स्वरूप है।। 13।। उन्नतोन्नत सम्यक दरश, सद्ज्ञान की पर्या यों में । उन्नतोन्नत आश्रय है करता, थिर अचल स्व-स्वभाव में | उन्नतोन्नत माध्यस्थ्य-भावी, उदय सुख-दुःख काल में । उन्नतोन्नत वृद्धि करे माध्यस्थ्य, समता-भाव में ।। 14 || चारित्रं सम्यक् मैं अकेला, कोई न साथ सगा। चारित्र सम्यक् सुख व दुःख में, मात्र मैं ज्ञाता-दृष्टा। चारित्र सम्यक इस तरह हो, आत्म प्रति सुदृढ़ता। चारित्र सम्यक् वीतरागी, भाव में उत्कृष्टता ।। 15 || कारण जो देश-कालादि बाह्य, सहकारी कारण कहे । कारण जो अनशन आदि तप हैं, निमित्त सहकारी कहे। कारण जो मूल उपादान के, सहकारी कारण हैं सभी। कारण जो सहकारी अरे हैं, उपाय बहिरंगी यही।। 16 ।।