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परिशिष्ट- 1
स्वरूप - संबोधन - परिशीलन
इस तरह से दोष- गुण, आलोचना को इस तरह अनुकूल सुख-मय, स्थिती का इस तरह प्रतिकूल दुःखदायी, दशा में इस राग-द्वेष विवर्जितं शुद्धात्म-भावन अंततः ।। 17 ।।
जानकर | भानकर । शक्तितः ।
कषाय- रंजित चित्त आतम, शुद्धात्म-भाव-स्वरूप कषाय- रंजित चित्त-चिंतन, असमर्थ-स्वरूप
कषाय-सम नीलांबर पर, रंग कुमकुम का कषाय-सम उस वस्त्र पर निश्चित ही मुश्किल से चढ़े ।। अतएव राग-द्वेष आदिक, दोषों का परिहार अतएव इष्टानिष्ट विषयों, से सर्वथा निर्मोह अतएव तू इस देह के, संसार विषय-भोगों को अतएव आतम-तत्त्व- चिंतन, मात्र निज शुद्धात्म भज।।
विज्ञाय आत्म-स्वरूप तत्त्वसु, हेय आदि पदार्थ विज्ञाय आत्म-स्वरूप तत्त्वसु, उपादेय पदार्थ विज्ञाय अन्य पदार्थ हैं अति, हेय आलम्बन विज्ञाय आतम-तत्त्व है, अति उपादेय ग्रहण करो ।।
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कर
हे जीव ! तू निज आतमा का, तत्त्व - चिंतन हे जीव ! अन्य पदार्थ के, वस्तु-स्वभाव को तू ध्या हे जीव ! अन्य से सर्वथा ही, उपेक्ष-भाव किया हे जीव ! चरमोपेक्षा मय भाव मुक्ति वरण करे ।। मुमुक्षु वांछा भी करे ना कदापि मुक्ती के मुमुक्ष भव्य मनुष्य वह, मुक्ती स्वयं जिसको मुमुक्षु के संदर्भ में जिनदेव, ऐसा कह मुमुक्षु वह आतम- हितू किंचित् नहीं बांछा करे ।।
का ।
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अरे ।
18 ।।
हो ।
हो ।
तज ।
19 ।।
को ।
को ।
तजो ।
20 ।।
अरे ।
अरे ।
करे ।
21।।
लिए ।
वरे ।
रहे ।
22 ।।