________________
226/
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
परिशिष्ट-1
हे तात्! इच्छाएँ अनंतों, आत्मा में राजतीं। हे तात्! वे इच्छाएँ तुझे, सुलभा-सी प्रतिभासतीं। हे तात! ऐसा है तो सूख, स्वाधीनता आकांक्षा। हे तात्! क्यों न यत्न करता, मुक्ति-पद की वांक्षा।। 23 || आत्मा को प्रथम तो, देहादि से न्यारा लखो। आत्मा का देह से, व्यामोह उसको भी तजो। आत्मा देहादि से है भिन्न, शुभ-उपयोग है। आत्मा आकुलता-रहित, संवेद्य शुद्ध-'पयोग है ।। 24 ।। आत्मा निज आत्मा में, आत्म-स्थित हो स्वयं । आत्मा स्व-स्वरूप को, अपने लिए जाने स्वयं । आत्मा से आत्म को, निज आत्म से उत्पन्न जो । आत्म अविनाशी अमर-पद, ध्यान कर पाता है वो।। 25 ।। जो व्यक्ति पूर्व-प्रकार से, इस वाङ्मय को वाँचता। जो व्यक्ति परिशीलन सहित, निज आत्मा को जाँचता। जो पंचविंशति-काव्य-मय, स्व-स्वरूप-संबोधन कृती। जो श्रवण करता मनन, पाता निजातम-सम्पती ।। 26 || आचार्य श्री अकलंक ने है, स्वरूप-संबोधन किया। आचार्य वर्य विशुद्धसागर ने है, परिशीलन किया । आचार्य सद्-उपदेश सुन, संकल्प मैं ने कर लिया। आचार्य-पद-विश्राम का, “चन्देश" निश्चित कर लिया।। 27 ||
***