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परिशिष्ट-2
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
परिशिष्ट-2 सन्दर्भित शब्द - कोश
संकलन : सिंघई जय कुमार जैन, सतना
(इस शब्द कोश में शब्दों के चयन का आधार संकलन कर्ता का अपना निजी है । यद्यपि उन्होंने परिभाषाएँ सतना-मंदिर - संग्रह व उनके निजी संग्रह में उपलब्ध विभिन्न शब्द-कोशों से दी हैं, जिनका कि उल्लेख किया गया है, फिर भी सम्पादक ने जहाँ विचार स्पष्ट नहीं था, वहाँ उनमें आंशिक परिवर्तन-परिवर्द्धन किया है, पर वह बहुत आंशिक ही है ।)
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अकलंक देव (आचार्य) - इनके समय के बारे में विद्वान् एक-मत नहीं हैं; फिर भी ई. सन् 620-680 के लगभग का समय इनके बारे में अधिक प्रामाणिक माना जाता है । आपके निम्न ग्रन्थ अत्यन्त प्रसिद्ध हैंतत्त्वार्थ-राजवार्तिक सभाष्य, अष्टशती, लघीयस्त्रय सविवृत्ति, सिद्धि - विनिश्चय, प्रमाण-संग्रह, वृहत्त्रयम् न्याय - चूलिका, अकलंक- स्तोत्र, स्वरूप- संबोधन । आपने वाद-विवाद- विचार/ शास्त्रार्थ में बौद्ध धर्मानुयायियों, जिनकी ओर से तारा देवी शास्त्रार्थ किया करती थीं, को परास्त कर जैनधर्म की श्रेष्ठता सिद्ध की थी, ऐसी प्रसिद्धि है ।
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- जै. सि. को., भा. 1, पृ. 31 अगुरुलघु (गुण) - जिस गुण के निमित्त से द्रव्य का द्रव्य - पना सदा बना रहे तथा जिसके निमित्त से प्रत्येक द्रव्य में षट्गुणी हानि-बृद्धि होती रहे, उसे अ-गुरु-लघु-गुण कहते हैं। अगुरुलघु-गुण का यह सूक्ष्म
परिणमन वचन से अगोचर है और मात्र आगम- प्रमाण से जानने योग्य है । - जै. द. पा. को., पृ. 2. अगुरुलघु (नामकर्म) - जिस कर्म के उदय से जीवन न तो लोह - पिंड के समान भारी होकर नीचे गिरता है और न रुई के समान हल्का होकर ऊपर उड़ता है।
- जै. द. पा. को., पृ. 2. अघातिया कर्म- जो कर्म आत्म-गुणों का सीधे घात तो नहीं करते, फिर भी भव-भ्रमण कराने में इनका पूरा-पूरा हाथ रहता है, वे अघातिया कर्म कहलाते हैं, ये हैं- वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म ।
- जै. त. वि., पृ. 326 अचेतनत्व - जिस गुण के निमित्त से द्रव्य जाना जाये, पर वह स्वयं न जान सके, वह अ-चेतनत्व गुण है अर्थात् जो जीवादि पदार्थों को स्वयं न जान सके, सो अचेनत्व है ।
- जै. सि. को. भा. 1, पृ. 39 अठारह दोष - जिनेन्द्र भगवान में 18 दोषों का अभाव होता है। ये 18 दोष हैं