Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
परिशिष्ट-2
अलाभ- इच्छित पदार्थ की प्राप्ति-रूप लाभ से विपरीत अ-लाभ कहलाता है।
-जै. ल., भा. 1, पृ. 133 अलोक- लोकाकाश के बाहर सब ओर जो अनन्त आकाश है, उसे अ-लोक या अ-लोकाकाश कहते हैं। अलोकाकाश में एक-मात्र आकाश द्रव्य है, शेष पाँच द्रव्य नहीं रहते हैं।
-जै. द. पा. को., पृ. 27 अवगाहन- सभी द्रव्यों को अवकाश/स्थान देना, –यह आकाश का अवगाहन-गुण है।
-जै. द. पा. को., पृ. 27 अवगाहना- 1. जीवों के शरीर की ऊँचाई, लम्बाई आदि को अवगाहना कहते हैं। 2. आत्म-प्रदेश में व्याप्त करके रहना अवगाहना है। यह दो प्रकार की है- जघन्य और उत्कृष्ट। जैसे- कर्मभूमि के मनुष्य की जघन्य अवगाहना 3/1/2 हाथ और उत्कृष्ट 523 धनुष्।
-जै. द. पा. को., पृ. 28 अनवतारवाद- अवतारवादी परम्परा के अनुसार जब-जब जगत् में अनाचार की जीत होती है, दुराचारी का आतंक बढ़ता है, धर्म और धर्मात्मा पर संकट आता है, तब-तब परमोच्च-सत्ता का धारी ईश्वर किसी न किसी रूप में अवतरित होता है एवं सज्जनता और सज्जनों की तथा धर्म और धर्मात्मा की रक्षा करता है। वह दुराचार
और दुराचारियों का विनाश करता है। तीर्थकरों के साथ यह बात नहीं है। जैनधर्म के अनुसार तीर्थकर किसी के अवतार
नहीं होते, इसीलिए जैनधर्म अन्-अवतारवाादी है।
-जै. त. वि., पृ. 18 अवधि-ज्ञान- जो द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि की सीमा में रहकर मात्र रूपी-पदार्थों को प्रत्यक्षतः जानता है, वह अवधि-ज्ञान है। अवधि-ज्ञान के तीन भेद हैं- देशावधि, सर्वावधि और परमावधि;देशावधि के अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनरक्षित आदि -ये छह भेद हैं। देशावधिज्ञान भव-प्रत्यय और गुण-प्रत्यय दोनों प्रकार का होता है। सर्वावधि और परमावधि दोनों गुण-प्रत्यय हैं।
-जै. द. पा. को., पृ. 28 अवधि-दर्शन- अवधिज्ञान से पहले रूपीपदार्थों का जो सामान्य प्रतिभास होता है, उसे अवधि-दर्शन कहते हैं।
-जै. द. पा. को., पृ. 28 अवर्णवाद- गुणवान् बड़े पुरुषों में जो दोष नहीं हैं, उन मिथ्या दोषों को उनमें दिखाना अ-वर्णवाद कहलाता है। केवलि, श्रुत, संघ, धर्म और देवों का अवर्णवाद, -इसप्रकार यह पाँच प्रकार का अवर्णवाद होता है।
-जै. द. पा. को., पृ. 29 अविनाभाव-संबंध- जिसके बिना जिसकी सिद्धि ना होय, उसे अ-विनाभावी-संबंध कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है- 1. सह-भाव, 2. क्रम-भाव।
-जै. सि. को., भा. 1, पृ. 211 अविरति-व्रतों को धारण न करना अ-विरति है, जिसका अर्थ है- विरति का न होना या अव्रत-रूप विकारी परिणाम का नाम अविरति