Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 24
है, कोई ऐसा विवेकी गुरु प्राप्त हो जाता, जो यह समझाता कि वत्स! यह कर्म का चक्र धर्म-चक्र का स्वामी नहीं होने देता। कर्म अपने हित में लगा है कि यदि जीव राग-द्वेष करता रहेगा, तो मुझे जीव के साथ रहने को मिलेगा, अहो! भगवन् आत्मा के साथ किसे रहना अच्छा नहीं लगेगा! .... पर ज्ञानियो! अब मोह का त्याग करो, अपनी शुद्ध-सत्ता का वेदन करो, निज प्रभुत्व-शक्ति का ध्यान करो, कर्माधीन कब तक रहोगे? ....तू तो स्वाधीन, निज-क्षेत्र में स्वतंत्र है, अपनी स्वतंत्रता का अनुभव कर, स्व-पर का ज्ञान होने पर उनसे भी मोह छोड़ दो, नष्ट कर दो; जब मोह छूट जाएगा, ज्ञानियो! मोह के छूटते ही जीव अनाकुल हो जाएगा, अनाकुल हुए बिना चित्त में शांति-वेदन नहीं होता। सम्पूर्ण कष्ट का हेतु आकुलता है, संक्लेश-परिणाम ही दुःख है, जहाँ संक्लेश है, वहाँ न तप है, न त्याग, जैसे- निरीह प्राणी तृण-भोजी मृग को शेर अपने मुख में रखकर चबा लेता है, उसीप्रकार संक्लेशता सम्पूर्ण विशुद्धि-स्थानों को चबा लेती है, संक्लेशता से साधक का चित्त न तो स्वाध्याय में लगता है, न सामायिक में, संयम-मुद्रा भी भार-भूत लगती है। जहाँ योगी एकान्त में पंच परमेष्ठी एवं स्वात्मा तथा जीवादि तत्त्वों का चिन्तवन करता है, वहीं संक्लेशता से ग्रसित जीव पर-घात एवं अप-घात करने के अशुभतम खोटे भाव कर तीव्र काषायिक भाव से युक्त होकर दीर्घ-संसारी होता है। अहो भव्यो! मोक्ष-मार्ग पर भी चलो तो धैर्यता, गंभीरता, संसार की विषमताओं को सहन करने की शक्ति के साथ चलना- "संक्लेशमुक्तमनसा" सूत्र का आलम्बन लेकर गमन करना, यदि मन संक्लेशता से मुक्त है, तो मुक्ति दूर नहीं है; संक्लेशता है, तो वन के वास व अनेक प्रकार के तप-त्याग, मासोपवास, अहोरात्रि मौन, सम्पूर्ण शास्त्रों के अध्ययन आदि को ऐसे ही स्वीकारना जैसे- हल में जुता हुआ पराधीन बैल, जो बिना इच्छा के कार्य कर रहा है, संक्लेश-भाव से की गई सम्पूर्ण साधना व्यर्थ है, संक्लेशता-रहित अल्प साधना भी मोक्ष-दायिनी है। यदि साधना के मार्ग पर कोई कष्ट भी देता है, तो उसे कर्म-विपाक स्वीकार कर शान्ति से सहन करना चाहिए, कोई आपको दुःख देने में कारण भी बन रहा हो, तो भी ध्यान रखो- बिना आपके अशुभोदय के व पूर्व-कर्मोदय के बिना क्या कोई किसी को कष्ट दे सकता है, स्वयं का ही विपाक फलित होता है, दुःख-सुख के काल में धैर्यवान् समताधारी साधु कर्म-विचित्रता कहकर सहज-भाव से समय निकाल देते हैं, जिससे जीर्ण कर्मों की निर्जरा हो जाती है और अभिनव कर्मों का संवर हो जाता है, जहाँ संवर-पूर्वक निर्जरा होती है, वहाँ साक्षात्-मोक्ष होना