Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप- संबोधन - परिशीलन
श्लो. : 25
सम्पूर्ण दुखियों के दुःख ईश्वर भोगता होगा, अहो ! फिर तो ईश्वर महा - कष्ट में होगा, जो स्वयं कष्ट में है, वह अन्य को सुख कैसे दे सकेगा..?....
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ज्ञानियो! पर-कृत कर्त्तापने से महा- अनाचार हो जाएगा, न कोई शील का पालन करेगा, न जीव की रक्षा करेगा, स्वच्छन्दी होकर व्यक्ति घोर पाप में लीन हो जाएँगे, हो भी रहा है, विश्व में पर- कर्त्ता - वादियों की संख्या प्रचुर है; स्याद्वाद्, सत्यार्थवाद पर चलने वाले जीव अति-अल्प हैं, बिना विशिष्ट सम्यक् पुण्योदय के सत्यार्थ - शासन की प्राप्ति नहीं होती, अनेक भवों की साधना से भवातीत करने वाले सिद्धान्त की उपलब्धि होती है, – ऐसा सर्वत्र उपदेश है । प्रत्येक द्रव्य स्व- पारिणामिक-भाव से युक्त है, न किसी का कर्त्ता है, न कारयिता है और न ही अन्य के कर्त्तापन का अनुमोदक है।
परमार्थिक दृष्टि से द्रव्य स्व- कारण, स्व- कर्त्ता व स्व-क्रिया रूप है, अन्य का कर्त्ता अन्य होने लगा ?... तो एक के साथ अन्य का परिणमन होगा, लोक की सम्पूर्ण व्यवस्था भंग हो जाएगी। आचार्य भगवन् अमृतचन्द्र स्वामी उक्त आशय को बहुत ही तर्क -पूर्ण शैली में समझा रहे हैं
यः परिणमति स कर्त्ता, यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्मम् । या परिणतिः क्रिया सा, त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया । ।
समयसार कलश, 51 / 139
जो परिणमन करता है, वह कर्त्ता है और जिसने परिणमन किया, उसका परिणाम कर्म है तथा परिणति क्रिया है, ये तीनों ही वस्तु तत्त्व से भिन्न नहीं ही हैं। द्रव्य-दृष्टि से परिणाम और परिणामी में अभेद है तथा पर्याय - दृष्टि से भेद है । वहाँ भेद - दृष्टि से तो कर्त्ता, कर्म और क्रिया – ये तीनों ही एक द्रव्य की ही अवस्थाएँ हैं, प्रदेश-भेद-रूप अन्य वस्तु नहीं है स्व-परिणाम - परिणामी भाव को मुमुक्षु जीव समझकर पर-भावों से निज-भाव को अत्यन्त भिन्न स्वीकारता हुआ परमानन्द- दशा के अनुभव की ओर बढ़ता है, जो कि स्व से ही उत्पन्न होता है; आत्मानन्द पर - कृत नहीं, पर में नहीं, स्व-कृत है और स्वयं में ही है । तत्त्व - ज्ञानी भव्य जीव निर्मल रत्नत्रय की आराधना करता हुआ अभेद-भाव में लीन रहता है, पर-निरपेक्ष होकर स्व-का आश्रय लेता है, स्वयं ही अपने को, अपने द्वारा, अपने लिए, अपने से, अपने अविनाशी स्वरूप में स्थिरता - पूर्वक ध्यान करके इस आनन्दमय अविनाशी पद को प्राप्त करता है, इसलिए प्रत्येक भव्य को इन्द्रिय-सुखों का त्याग कर परमामृत का ही पान करना चाहिए । । २५ । ।
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