Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 21
दिखेगी, जैसे महामारी के होने पर नगर के नगर जन-मानस से शून्य हो जाते हैं, सारे नगर में कहीं एक-दो नर ही जीवित हों, मानों शेष मृत हो चुके हों, उसी प्रकार लोक में भाव-ब्रह्मचारी एक दो ही होंगे, यानी अत्यन्त अल्प होंगे, – ऐसा समझना, द्रव्य (तन) से कितनी निर्दोषता से युक्त जीव रहता है, अहो मनीषी! चार अंगुल की रसना इन्द्रिय, चार अंगुल की स्पर्शन- इन्द्रिय – ये दोनों काम- इन्द्रिय हैं, इन आठ अंगुल पर नियंत्रण जिसका हो गया है, वे ही भव्य - पुरुष अष्टम वसुधा के स्वामी हुआ करते हैं, अन्यथा नीचे की सात भूमियाँ तो असाधारण प्राप्त होती हैं, वे हैं सात नरक! विषय-तृष्णा में आतुर पुरुष सम्पूर्ण विवेक-बोध तथा बोधि का ध्यान भूल जाता है, सूर्य की दिव्य ज्योति में भी उसे दिखायी नहीं देता, सत्यता तो है, जिसके जीवन में चारित्र का प्रकाश विनष्ट हो गया हो, उसके सामने तो अन्धकार ही अन्धकार है, अब बाहर का प्रकाश क्या करेगा ?.... चिद् - ज्योति का आलोक ही परम प्रकाश है । सम्पूर्ण बाह्य साधना एक ओर, शील- व्रत एक ओर । ज्ञानी! शील के अभाव में कोई व्रत ही नहीं है, सम्पूर्ण व्रतों की प्रामाणिकता शील- व्रत से ही है, शील गया, तो समझो - सब-कुछ गया, शेष व्रत तो ऐसे मानना - जैसे कि गेहूँ के अंदर घुन का कीड़ा, अन्दर ही अन्दर गेहूँ को खोखला कर देता है, पर ऊपर की चमक फिर भी दिख रही है, उसीप्रकार जिसके हृदय में काम-कीड़ा लग गया है, उसके व्रतों की चमक घुने गेहूँ के सदृश है। ज्ञानियो! खोखले संयमी उभय- रूप पापास्रव कर रहे हैं, एक तो अब्रह्म महापाप, दूसरा मायाचार। गृहस्थ होते, एक भवन होता, परिवार चलता, सभी के सामने दाम्पत्य-जीवन जीता तो उभय-पाप का आस्रव तो नहीं होता । अहो मुमुक्षुओ! संयम-मार्ग तो संयम का ही है, असंयम का नहीं है । त्रैलोक्यपूज्य शील- व्रत जो धारण किये होते हैं, ऐसे महाव्रतियों के चरणों की रज भी वन्दनीय है, – ऐसे योगियों के दर्शन जहाँ प्राप्त हों, वहाँ शीघ्र चरणों में शीश झुका देना, शिव-सुख के साक्षात् पथिक की वंदना भी बन्धन को तोड़ देती है । ज्ञानियो! अखण्ड, ध्रुव, ज्ञायक-भाव का आलम्बन लेने से निर्दोष शील-धर्म का पालन होता है, ज्ञान से ज्ञेयों को भी जानना जहाँ विराम ले लेगा, वहीं ज्ञानानुभूतियाँ प्रारंभ हो जाएँगी, यह तो ज्ञानानुभूति है, वही आत्मानुभूति है, जो परम- योगीश्वरों के निश्चय ध्यान का विषय है, वही परम ब्रह्मधर्म है, यहाँ पर सम्पूर्ण विषय - तृष्णा का वियोग हो जाता है, एक मात्र निजात्म- रमणी का ही संयोग रहता है, पर - पदार्थों से परिणति परिपूर्ण पृथक् हो जाती है, मुनि बनने का आनन्द यहीं से प्रारम्भ होता है, इसके पूर्व मात्र बाह्याचरण था, जो कि कषाय की
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