Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप - संबोधन - परिशीलन
श्लो. : 23
क्यों न बोले, पर किसी को अच्छा नहीं लगता, यह भी कर्म - विपाक है, इसमें भी हर्ष-विषाद करने की आवश्यकता नहीं है। अभिनव कर्मों को आमंत्रण नहीं देना, जीर्ण-कर्मों को पृथक् अवश्य करना, यही ज्ञानी की प्रज्ञा का सम्यक् प्रयोग है ।
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तत्त्व - ज्ञान की प्राप्ति बहुत ही दुर्लभ है, लोक में अनेक प्रकार की विचार-धाराएँ हैं, सभी के अपने-अपने सिद्धान्त हैं, बुद्धियों के विकार हैं, चिन्तवन हैं, सम्यक् भी हैं, विपरीत भी हैं, विपरीत तत्त्व को ग्रहण करने में सरलता है, क्योंकि अधो-गमन शीघ्र होता है, कठिन तो ऊर्ध्व-गमन है, अपनी बुद्धि एवं शक्ति का ऊर्ध्व-गमन करना चाहिए, विचारों की निर्मलता एवं चारित्र की पवित्रता ऊर्ध्व-गमन के साधन 1 विचार जितने निर्मल होंगे, चारित्र उतना ही पवित्र होगा, विचारों का पतन ही चारित्र का पतन कराता है, इन दोनों में जन्य - जनक-भाव है । सम्यक् तत्त्व-बोध से मण्डित प्रज्ञा ही विश्व - पूज्यता को प्राप्त होती है, यही प्रज्ञा प्रज्ञावान् को लोक के शिखर का शेखर (मुकुट) बना देती है । विपरीत - प्रज्ञा अधो- लोक की सात भूमियों की निर्बाध यात्रा करा देती है । मुमुक्षु स्व-प्रज्ञा को सँभाल, अन्यथा भावों का परिणमन विपरीत हो जाएगा, भावों का विपरीत परिणमन ही विपरीत भव-गमन का कारण है । ज्ञानियो! कारण-कार्य-भाव सर्वथा घटित होता है, कारण निर्मल होंगे, तो कार्य भी निर्मल होगा। सत्यार्थ- कारणभूत जिस धान्य का आटा होगा, रोटी भी उसी धान्य की बनेगी, यदि धान्य बाजरा है, तो रोटी का वर्ण तद्रूप ही होगा, व उससे चावल के आटे जैसी सफेद रोटी तो नहीं ही बन सकती ! उसीप्रकार जिसके परिणाम काले होंगे, तो उनकी भाषा भी काली होगी, यानी अशुभ, कर्कश, ग्रामीण, कर्णभेदी, हृदय पर प्रहार करने वाली ही होगी, जिसके अन्तःकरण में वात्सल्य भाव विद्यमान है, उसकी भाषा भी मधुर, अमृतभूत, कर्णप्रिय हृदय को आह्लादित करने वाली, जगत् हितकर, सुखद, संशय को विच्छेद करने वाली, सम्यक् मार्ग का उद्योतन करने वाली आगम-रूप होगी । वक्ता के प्रशस्त - अध्यवसाय-भाव की परिचायक शुभ-भाषा है, कोयल एवं काक की पहचान वर्ण से नहीं होती, दोनों की पहचान वाणी से होती है, ज्ञानी एवं अज्ञानी की पहचान वाणी से होती है, इतिहास साक्षी है, अगाध जैन वाङ्मय के ज्ञाता आचार्य - प्रवर जिनसेन स्वामी शरीर से बहुत सुंदर तो नहीं थे, पर ज्ञानियो! महापुराण की भाषा से उनका परिचय मिला, भगवन् जिनसेन स्वामी के श्री-मुख एवं कण्ठ में सरस्वती विराजमान थी, जिसने कि प्रथम तीर्थेश आदीश्वर स्वामी के जीवनवृत्त पर विशद काव्य लिखकर विश्व - वाङ्मय में जैनत्व के मस्तक को ऊँचा किया है। आचार्य जिनसेन स्वामी महापुराण- जैसे चौबीस पुराण लिखना चाहते थे, पर क्या किया जाए, आयु-कर्म पर किसी का बस नहीं चलता और आचार्य
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