Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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श्लो. : 22
बिना स्वावरण-कर्म के क्षयोपशम के किसी वस्तु की भी प्राप्ति नहीं होती । आत्म- गुण एवं अन्य पदार्थ सभी में स्वावरण-कर्म का क्षय व क्षयोपशम अथवा उपशम का होना अनिवार्य है। अज्ञ प्राणी! वस्तु-स्वतंत्रता, वस्तु-व्यवस्था को जाने बिना व्यर्थ में क्लेश को प्राप्त हो रहे हैं और अभिनव कर्मास्रव - बन्ध कर संसार को बढ़ा रहे हैं, निजात्मा पर उन्हें करुणा ही नहीं है। क्या करें ?... मोह से आवृत - ज्ञान स्वभाव को प्राप्त नहीं होता । आकांक्षाएँ इतनी विशाल हैं कि सुमेरु पर्वत भी छोटा दिखायी देता है, सम्पूर्ण लोक का द्रव्य भी एक पुरुष की आकांक्षा की पूर्ति नहीं कर सकता, फिर इस लोक में नाना जीव हैं, उनकी इच्छाओं की ज्वाला कैसे शान्त हो सकती है ?... आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए जो द्रव्य संगृहीत किया गया है, वह ऐसे मानकर चलना, जैसेजलते हवन-कुण्ड में घृत का क्षेपण किया गया है, घृत अग्नि को शांत करता है या-कि ज्वाला को तेज कर देता है ? .... अज्ञ प्राणी ही ऐसा सोच पाएगा कि घृत डाल दो, अग्नि शान्त हो जाएगी, पर विज्ञ तो यही समझता है कि वृद्धि को ही प्राप्त होगी, इच्छाओं से इच्छाएँ बढ़ती ही हैं, न कि शान्त होती हैं, जब-जब आकांक्षाओं की पूर्ति होना प्रारंभ हो जाती है, तब-तब आकांक्षाएँ उग्र रूप में होती हैं, आकांक्षाओं को सीमित करना ही आकांक्षाओं को शान्त करने का उपाय है, अन्य कोई उपाय नहीं है। बड़े-बड़े दिग्गज योगीश्वर भी संज्ञाओं में संज्ञान खो बैठे, मान-प्रतिष्ठा की कामना में चारित्र की कमर टेढ़ी कर ली, पर ध्यान रखना - आकांक्षाएँ तो पूरी नहीं हो सकीं, परंतु धर्म-ध्यान के स्थान पर ईंट - चूने के ध्यान में आयु पूर्ण अवश्य हो गई। वीतराग सत्यार्थ-मार्ग को प्राप्त करके भी जीव कुछ भी प्राप्त नहीं कर सका, आकाश की नित्यता को जानते हुए भी अनित्य-भवनों में नित्यता खोजनी चाही, मनीषियो! अनित्य-भवन नित्य-आकाश में खड़े तो अवश्य किए जा सकते हैं, पर उन्हें नित्यता की प्राप्ति नहीं होती, आयु हजार-पाँच सौ वर्ष तक मान लो, जितनी उनकी आयु है, फिर-तो नित्य-आकाश ही अवशेष रहता है, आप शोक करने को भी नहीं बच पाते, जब स्वयं की पर्याय नष्ट हो जाती है, फिर अन्य की पर्याय स्थिर कैसे रहेगी ?..... ध्रुव तो आकाशवत् जीवद्रव्य ही है, वह न कभी उत्पन्न होता है, न नष्ट ही होता है, पर्याय ही बदलती है। अहो चैतन्य! तू ध्रुव व ज्ञायक-भाव का ज्ञाता है, व्यवहार-धर्म की प्रवृत्ति की दृष्टि से तीर्थ आदि रचना आवश्यक तो है, पर वह श्रावक-धर्म है, उपदेश मात्र देना सराग चारित्र की दशा है, पर निर्देशन करना राग - दशा है । ज्ञानियो! निश्चय तीर्थ की ओर भी लक्ष्य करना चाहिए, बिना निश्चय का आलम्बन
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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