Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 20
काषायिक भावों से निर्वाण की प्राप्ति कब किसको हुई है? ...मेरे मित्रो! चाहे आप श्रावक हों, चाहे श्रमण; जिन-शासन में मायाचारी को मोक्ष-तत्त्व की प्राप्ति में कोई स्थान नहीं है, माया-धर्म तिर्यञ्च-पर्याय की प्राप्ति का ही उपाय है, न कि मोक्ष का उपाय है। मोक्ष का उपाय तो उत्तम आर्जव, मार्दव धर्म है, जो उभय-धर्मों से शून्य हैं वे मोक्षमार्ग के निकट ही नहीं हैं, वे मोक्ष-तत्त्व के शब्द-ज्ञान से भी अनभिज्ञ हैं, उन्हें अभी शान्त भाव से बैठकर चिन्तवन करना होगा, भेष का धर्मात्मा तो बन चुका, पर भाव के धर्मात्मा तभी बन पाएँगे, जब माया-धर्म को निज चैतन्य-भवन से भिन्न कर पाएँगे। ज्ञानी! ध्यान रखो- जब-तक माया-धर्म का पलायन नहीं होगा, तब-तक सत्यार्थ मोक्ष-मार्ग पर भी श्री-पाद नहीं रख सकेगा। निकट-भव्य-जीव ही सहज मार्दव-आर्जव-भाव को प्राप्त होता है, अन्य कोई कारण जिन-शासन में परिलक्षित नहीं होता, जिससे कि मायाचारी का अन्तरंग से गमन हो जाए और शिव-सुंदरी के श्री-मुख को स्व-चक्षु से निरख सकें, फिर अन्यत्र नेत्रों के गोलक नहीं घूमेंगे, यह ध्रुव सत्य है, आगम-वचन में शंका को स्थान कहाँ? ..........शंका-शील का मोक्ष-मार्ग कहाँ?.... मोक्ष-मार्गी ध्रुव, निःशंक जीवन जीता है। अपने प्राणों से प्रिय, तत्त्व-बोध-ज्ञाता, कुशल-पुरुष, आगम-वचन को आत्म-वचन मानता है, अन्य वचनों में उसे किञ्चित् भी राग-भाव नहीं आता! ऐसा भव्यतर पुण्डरीक जीव ही स्व-पर भेद-विज्ञान को प्राप्त होता है, तत्त्व-बोध से शून्य-बुद्धि वाला पुरुष क्या स्व-भाव व पर-भाव के भेद को प्राप्त कर सकेगा? ...अहो ज्ञानियो! आपको तो अच्छी तरह से मालूम है कि क्षीर से नीर को पृथक् करने की कला तो हंस पक्षी के अंदर ही होती है। क्या क्षीर-नीर का भिन्नत्व भाव कौआ के अंदर भी होता है? .....मल-पिण्ड पर बैठने वाला क्या भिन्नत्व-भाव की विद्या का ज्ञाता होगा? ........काक-वृत्ति भोग-वृत्ति है, विषयों के मल-पिण्ड में अनुरक्त चित्त वाले पुरुष वस्तु-स्वरूप के सत्यार्थ-भाव को प्राप्त नहीं होते। अहो भव्य! जो भावी भगवान् होते हैं, वे ही शिव-सुंदरी-प्रदाता शिव-मार्ग पर उपेक्षा-भाव से जी पाते हैं, आनन्द-कंद, ज्ञान-घन, चिद्-पिण्ड चैतन्यभगवान् आत्मा को प्राप्त करने वाले पुरुष अनोखे ही होते हैं, जिसके अंदर स्वप्न में भी विषयों के स्वप्न नहीं आते, कषाय पर भी कषाय नहीं आती, फिर वह अन्य कषायी पर क्या कषाय करेगा?.... अहो! जो विरागियों से विरागी रहता है, वित्त पर ही नहीं, जो वित्त-रागी के चित्त पर भी चित्त नहीं डालते, वे तो मात्र ज्ञानानुभूति, आत्मानुभूति में समय निकालते हैं, समय से उन्हें समय ही नहीं मिलता, वे-तो