Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 20
जीव स्वयमेव राग-द्वेष-रूप भाव-कर्म करता है। भाव-कर्म जीव का ही राग-द्वेष-रूप परिणाम है, अन्य के द्वारा की गई कोई अवस्था नहीं है। यह विषय भिन्न है कि द्रव्य-कर्म के बिना भाव-कर्म नहीं होते, निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है .....पर जब द्रव्य-कर्मों से आत्मा स्वतंत्र होगी, तब भाव-कर्म को ही निर्मल करना होगा, बिना भाव-कर्मों के अभाव किये द्रव्य-कर्मों का अभाव नहीं होता, जैसे ही भाव विशुद्धि को प्राप्त होते हैं, द्रव्य-कर्म निर्जीर्ण हो जाते हैं। ज्ञानी! भाव-कर्म ज्ञान की ही धारा है, आत्मा की ही परिणति है, प्रत्येक अवस्था स्वाधीन है, कर्माधीन नहीं, यहाँ पर विचार करो- कर्माधीन कहकर वस्तु-व्यवस्था को भंग करने का प्रयास मत करो, कर्म-वर्गणाएँ स्वतंत्र रूप से स्व-चतुष्टय में विराजती हैं, जीव स्वयं ही राग-द्वेष-भाव करता है, तभी वे कर्म-रूप परिणत होती हैं। विचार करो- जीव कर्माधीन हैं कि परिणामों के अधीन हैं, मान-अपमान, लाभ-अलाभ, जो-भी-कुछ हो रहा है, वह भी सर्वथा कर्माधीन हैकहना बंद करो. उत्तम कर्मों के साधन की बात करो, जो आज मान-सम्मान प्राप्त हो रहा है, वहाँ भी सर्वथा इस मान्यता को निकाल दो कि मैंने ऐसा किया, सो मुझे सम्मान प्राप्त हो रहा है, जैसा वर्तमान में सम्मान के लिए आप कार्य कर रहे हैं, वैसा तो अन्य लोग भी कर रहे हैं, फिर तुझे सम्मान प्राप्त हो रहा है, दूसरे को अपमान ही प्राप्त होता है, क्या कारण है? ज्ञानी! पूर्व पुण्योदय कार्य कर रहा है, -ऐसा क्यों नहीं बोलता, एक जन्म से कष्ट को प्राप्त होता है, एक जन्म से सुखमय जीवन जी रहा है, सुकृत के काल में पाप का विपाक भी शुभ से फलित होते देखा जाता है और तीव्र पाप-कर्मोदय के काल में पुण्य-द्रव्य का फल भी दुःख-रूप फलित होता है, ऐसा आगम-वचन है, प्रत्येक कार्य आत्माधीन ही दिखता है, व्यवहार-नय से पराधीन भले ही कह दिया जाये। आत्मा जैसा भाव करता है, वैसा ही द्रव्य-कर्म फलित होता है, अन्य स्वतंत्र रूप से स्वतः कोई भी कर्म-बन्ध को प्राप्त नहीं होता। ज्ञानियो! स्व-ज्ञान से चिन्तवन करो, आत्माधीन हुए बिना जीव कभी भी कर्माधीनपने को प्राप्त नहीं होता, जो भी अभिनव कर्मास्रव हैं, वे सब आत्मा के स्व-परिणामों के माध्यम से आम्रवित होते हैं। यदि आत्मा को त्रैकालिक ध्रुव, ज्ञायक-स्वभावी स्वरूप से निहारना चाहता है, तो कर्मों के ऊपर शक्ति का व्यय करना छोड़कर भावों की विशुद्धि में पुरुषार्थ करो, आत्मा कर्मातीत अवस्था को शीघ्र प्राप्त हो जाएगा। पर-भावों से निज भावों को विभक्त कर देखो, 'शुद्धोऽहं के स्थान पर सर्वाधिक 'रूपभिन्नोऽहं का ध्यान करना अनिवार्य है, बिना भिन्नत्व-भाव को समझे हुए शुद्धात्म-स्वरूप की