Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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श्लो. : 21
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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शुद्ध मार्दव-आर्जव-भाव के साथ आगम-प्रणीत रत्नत्रय धर्म की निःकांक्षित विशद आराधना से होता है और धन-सम्पदा की प्राप्ति ज्ञानियो! लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होती है, यदि लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम नहीं है, अलाभ का तीव्र उदय ही उदय है, तो कोई कितनी ही तृष्णा कर ले, कर्मास्रव एवं बंध ही कर लेगा, पर बाह्य वैभव को भी प्राप्त नहीं कर सकेगा। मेरे मित्र! जब अशुभ-औदयिक-भाव चल रहा हो, उस काल में निज परिणामों को शान्ति-पूर्वक स्थिर रखते हुए क्लेश से भयभीत होकर, संक्लेश से अपने मन को मुक्त रखते हुए समय को जिनदेव, श्रुत और गुरु के पाद-मूल में बिताना चाहिए, कारण समझना- अशुभोदय तो चल ही रहा था, अशुभोदय के काल में तृष्णातुर रहोगे, तो और-अशुभ ही होगा, विश्वास रखनापापोदय में उल्टा ही उल्टा होता है, श्रेष्ठ तो यही है कि अशुभ दिनों को शुभ में लगाएँ, पाप-समय को पुण्य में फलित करने की कला शान्त-भाव है। शुभ से अशुभ कर्मोदय क्षण मात्र में संक्रमित हो जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं। यह पंच-परमेष्ठी एवं शुद्ध-भावों की दशा की परिणति का परिणमन है। मिट्टी में भी धान्य उगते हैं, उपसर्गों में आत्मा भी कुन्दन बनती है, जो कष्टों एवं उपसर्गों से भयभीत होते हैं.. ., वे मोक्ष-मार्ग में अनुत्तीर्ण हो ही जाते हैं। ___ ज्ञानियो! उत्तीर्णता तभी मिलती है, जब पूर्णांक होते हैं, अपूर्णांक से कभी भी पूर्ण-उत्तीर्ण नहीं होते, उसी प्रकार निर्वाण-प्राप्ति तृष्णा से रिक्त पुरुष को ही होती है, तृष्णातुर पुरुष को निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती, समग्र चारित्र धारण करने वाला, तृष्णा की अनल से आत्म-रक्षा करने वाले, भव्यवर पुंडरीक जीव ही मोक्षमार्ग में उत्तीर्ण होते हैं, जो विषयों की तृष्णा में सामायिक संयम को खो रहे हैं, निर्माण एवं नाम-पट्टिका... पर निर्वाण-मार्ग को दूषित कर रहे हैं, वे उत्तीर्ण कैसे होंगे? ....अहो ज्ञानियो! राग-विषय का विसर्जन करते हुए परिपूर्ण शान्त-भाव से विषय को आत्म-विषय बनाइये। जल में खिलने पर कमल जल-रूप नहीं होता, जल में तो है, पर जल-मय नहीं है, जल जल ही है, कमल कमल ही है, कमल चाहे भी कि मैं जल-मय हो जाऊँ, तो भी नहीं होता, उसी प्रकार जीव पर-पदार्थों की तृष्णा करते रहें, अज्ञान से मोहित होकर बद्ध-अबद्धों के प्रति, तो भी वे पर-पदार्थ स्व-धर्म का परित्याग कर जीव रूप नहीं हो जाएँगे, वे तो स्व-धर्म में ही निवास करते रहेंगे और जीव व्यर्थ में राग के पाश में बँधकर भव-भ्रमण करता रहेगा, शब्दों में मोक्ष-प्राप्ति की बात करता रहेगा। बुद्धि संसार-बुद्धि में वर्धमान है, अब क्या कहें- स्वयं चिन्तवन भी करो- क्या हम स्वात्मा की वंचना नहीं कर रहे?... धर्मात्मा का भेष धारण कर क्या अधर्म नहीं कर रहे?...