Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
View full book text
________________
श्लो. : 10
इसका कोई दोष नहीं है, इतना श्रवण करते ही कपिल ब्राह्मण आत्म-ग्लानि से युक्त होते हुए समुचित श्रद्धानकर सम्यग्दर्शन को प्राप्त हुआ ।
ज्ञानी! जो शत्रु-रूप दिखता था, वो भक्त हो गया, किसे शत्रु कहूँ, किसे मित्र? ... शत्रु-मित्र लोक में अन्य नहीं हैं, अन्य तो निमित्त मात्र हैं, सत्यार्थ में अन्तरंग शत्रु-मित्र जीव के स्व-परिणामों की दशा है, जिसे शत्रु-मित्र बोलकर आप राग-द्वेष कर रहे हैं, वे न शत्रु हैं, न मित्र, तो फिर शत्रु-मित्र कौन हैं?.... शत्रु-मित्र की कल्पना से जो अन्तरंग में राग-द्वेष-भाव हो रहे हैं, वे ही भूतार्थ शत्रु-मित्र हैं । यदि जगत् में राग-द्वेष भाव न करें, तो प्रत्येक जीव ज्ञायक - स्वभावी शुद्ध - चिद् - रूप परमात्मा है । अन्तरंग में बैठकर विशुद्ध-भावों से तनिक चिन्तन तो करो - मेरे सुख-दुःख का कर्त्ता कौन है? .....कर्म हैं कि तेरे भाव-कर्म हैं, भाव-कर्म करना बंद कर दे, तो जड़ - द्रव्य कर्म क्या करेंगे?... .. द्रव्य - कर्मों के निमित्त भाव - कर्म होते हैं, भाव- कर्मों के निमित्त से द्रव्य-कर्म आते हैं, पुरुष का पुरुषार्थ भाव - कर्मों पर चले, तो द्रव्य-कर्म स्वयमेव क्षण - मात्र में निर्जरा को प्राप्त हो जाएँ । जीव के परिणाम कर्म-वर्गणाओं को निमंत्रण देते हैं, निज-भावों को पर-भावों में न ले जाकर परिणाम - विशुद्धि रखें, स्व के प्रति स्व-परिणामों को स्थापित कर लें तथा जगत् से अपने-आपको संकुचित कर लें, लोकाचार से भिन्न होकर लोकोत्तराचार में प्रवेश कर जाएँ, अशुभ कर्म का त्याग कर दें, तो ज्ञानी! जड़-कर्मों की शक्ति स्वयं मंद पड़ जाएगी ।
94/
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
पुद्गल-वर्गणाएँ जीव के विकारी -भाव हुए बिना कभी भी कर्म-रूप नहीं होतीं । तो बहुत ही साधु हैं, बलात् किसी के प्रति असाधुता का व्यवहार नहीं करतीं, पर ध्यान रखना- किञ्चित् भी अशुभ मन-वचन-काय किया, तो उनसे शीघ्र ही जीव बन्ध को प्राप्त होता है । कारण यह कि वे श्रेष्ठ न्यायाधीश हैं । वहाँ पर न किसी की मनौती चलती है, न किसी की प्रार्थना लगती है। कोई कितना ही बड़ा श्रेष्ठ व्यक्तित्व आपका पक्ष लिये क्यों न खड़ा रहे परन्तु कर्म - सिद्धान्त के न्यायालय में किसी भी पुरुष के सदोष -पक्ष की सुनवायी नहीं है, वहाँ तो दण्ड स्वीकार करना ही पड़ता है। मैंने देखा है - इस न्यायालय में तीर्थंकर भगवान् - जैसे श्रेष्ठ उत्तम शासक के प्रति भी वही हुआ, जो सामान्य प्रजा के साथ होता है, यानी जो कर्म किया था, वह उन्हें स्वीकारना ही पड़ा। कर्म का विपाक तीर्थंकर - पद से भूषित आत्मा को भी स्वीकार करना पड़ा। ज्ञानी! भगवान् आदिनाथ स्वामी से पृच्छना कर लेना- भगवान् आपको छः माह तक निराहार क्यों रहना पड़ा ?... वे भी बतला देंगे कि ऐसा आचार्य भगवन् गुणभद्र स्वामी ने बहुत ही सुदर शैली में प्ररूपित किया है