Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो . : 10
श्लोक-10
उत्थानिका- शिष्य की प्रार्थना- भगवन्! कर्म के कर्त्तापन एवं भोक्तापन के स्वरूप को समझाने की कृपा करें..... समाधान- आचार्य-भगवन् कहते हैं
कर्ता यः कर्मणां भोक्ता, तत्फलानां स एव तु।
बहिरन्तरुपायाभ्यां, तेषां मुक्तत्वमेव हि ।। अन्वयार्थ- (यः) जो आत्मा, (कर्मणां) अपने राग-द्वेष, मोह आदि भावों का तथा उन भावों के द्वारा ज्ञानावरण आदि कर्मों का बन्ध, (कर्ता) करने वाला है, (स एव) वही आत्मा, (तत्फलानां) उन कर्मों के शुभ-अशुभ फलों का, (भोक्ता) भोगने वाला है, (तु) और, (हि) निश्चय करके, (बहिरन्तरुपायाभ्यां) बहिरंग और अन्तरंग उपायों द्वारा, (तेषाम्) उन कर्मों का, (मुक्तत्वम् एव) छूट जाना भी उसी आत्मा को होता है। 10 ||
परिशीलन- आचार्य-देव परम-वात्सल्य-भाव से भव्यों के कल्याणार्थ कर्मों के कर्तृत्वभाव, भोक्तृत्वभाव एवं मुक्तत्व पर विशद रूप से प्रकाश डाल रहे हैं; ज्ञानियो! उक्त तीनों सूत्रो को समझना सामयिक है। लोक में जो जीव कषाय को प्राप्त हो रहे हैं, उसका मुख्य कारण यही है कि जीवों को कर्म-सिद्धान्त का ज्ञान एवं उस पर श्रद्धान नहीं है, जहाँ कर्म-सिद्धान्त के भूतार्थ का ज्ञान हो जाता है, वहाँ व्यक्ति उपशम-भाव को प्राप्त होता है, क्षण-मात्र में उसकी कषायाग्नि शान्त हो जाती है। ज्ञान का चिन्तवन ज्ञान के साथ जब होता है, तब कर्म-सिद्धान्त पर ध्यान जाता है, जब ज्ञान अज्ञान-मोह से ग्रसित होता है, तब ज्ञान कषाय-मल में मलिन होकर पर के अहित में परिणत होता है। वह समय बहुत ही नाजुक होता है, जिस समय विषय-कषाय के निमित्त परिपूर्ण-रूप से सामने हों, अन्य दोष दृष्टिगोचर हो रहा है। जिस काल में स्व-प्रज्ञा को निर्मल करके रख पाना दुष्कर है। मनीषियो! अभिनव-कर्मो से बचने का एवं जीर्ण-कर्मों से छूटने का यह पावन समय है, यदि प्रज्ञा साथ दे दे तो। प्रज्ञा पर-भावों में व्यभिचरित न हो, यानी बुद्धि अन्य-पुरुष पर न जाकर स्वकर्मोदय पर चली जाए, तो जो दुःख-सुख फलित दिख रहे हैं, वे सभी स्व-कृत शुभाशुभ कर्मों के विपाक रूप हैं, अन्य तो निमित्त मात्र ही हैं। यदि मेरे द्वारा पूर्व में अशुभ न किया गया होता, तो आज मेरे लिए ये निमित्त-दुःख क्यों बनता ?....