Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप - संबोधन - परिशीलन
श्लो. : 12
छिपाना तथा अपना चिन्तन कहकर व्यर्थ की प्रशंसा की भूख में मत पड़ जाना - ऐसा करना महा पाप है व ऐसा करने वाला महा- पापी होता है। जिसने बोध एवं बोधिधर्म-देशना दी हो, उसे भूल जाए, उससे बड़ा पापी संसार में अन्य कौन हो सकता है ?... प्रज्ञ पुरुष कभी भी उपकारी के उपकार को नहीं भूलता, साथ ही जिस शास्त्र को पढ़कर ज्ञान प्राप्त किया है, उस शास्त्र का नाम अवश्य लेना चाहिए, ये आठ अंग निर्दोष ज्ञान के द्योतक हैं।
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सम्यग्ज्ञानी जीव प्रत्येक अंग का पालन बुद्धि-पूर्वक करता है, एक भी अंग के प्रति प्रमाद-भाव को प्राप्त नहीं होता है। सम्यग्ज्ञान प्रदीपवत् है । मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवलज्ञान इत्यादि ये पाँच ज्ञान हैं । आचार्य उमास्वामी महाराज कह रहे हैं कि 'तत्प्रमाणे' अर्थात् वह प्रमाण है, अन्य कोई इन्द्रिय- सन्निकर्षादि प्रमाण नहीं हैं, ये सभी प्रमाणाभास हैं। "सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्" सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है । विपरीत मिथ्या - ज्ञान भी प्रमाण नहीं है। मिथ्यात्व के साथ सद्-असद् से विवेक - विहीन हुआ पुरुष उन्मत्त-वत् चेष्टा करता है, जैसे- मद्यपायी पुरुष की दशा होती है, उसीप्रकार मिथ्यात्व-सेवी की दशा होती है, मिथ्या-दृष्टि का ज्ञान प्रमाणित नहीं है, सम्यग्दृष्टि का सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है, सम्यक् तत्त्व - ज्ञान ही प्रमाण है ।
ज्ञानियो! ज्ञानाभासों में उलझकर स्वात्मा की वंचना नहीं कर लेना, सम्यक् शब्द-ज्ञान के साथ अभिन्न है, जो सम्यक् को भिन्न कर ज्ञान को स्वीकारते हैं, मात्र ज्ञान को प्रमाण कहते हैं, वे अज्ञानी हैं, प्रमाणभूत ज्ञान में सम्यक् शब्द अविनाभावी है, जहाँ-जहाँ प्रमाणित ज्ञान होगा, वहाँ-वहाँ सम्यग्ज्ञान ही होगा, सम्यग्विहीन ज्ञान में प्रामाणिकता की अन्यथानुत्पत्ति है । रथ्यापुरुष के आलाप-तुल्य समझना, यानी व्यर्थ का आलाप मात्र है ।
अहो! गाय के संग से दुग्ध-धारा नहीं निकलती, उसीप्रकार मिथ्यादृष्टि के ज्ञान में प्रामाणिकपना नहीं होता । प्रमाता, प्रमेय, प्रमाण, प्रमिति चारों भिन्न हैं या अभिन्न, इस पर विचार करना चाहिए, न सर्वथा भिन्न हैं, न सर्वथा अभिन्न ही है, ये भिन्नाभिन्न हैं; अर्थात् कथञ्चित् भिन्न हैं, कथञ्चित् अभिन्न हैं, एकान्त से भिन्न कहना मिथ्या भी है; फिर तत्त्व-पना कैसा है? .... भिन्नाभिन्न ही है, संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन की अपेक्षा से प्रमाण, प्रमेय, प्रमाता, प्रमिति में भिन्नत्व-भाव है, परंतु आधार-आधेय की अपेक्षा से अभिन्नत्व-भाव है । कारण-कार्य कर्त्ता की अपेक्षा से भी कथन किया जा सकता है, लोक में कर्त्ता - कारण भाव में विपर्यास देखा जा रहा है।