Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 17
वह तो एक श्वान को भी पसन्द नहीं आता; वह भी (श्वान भी) क्रोधी व्यक्ति को देखकर भाग जाता है, वही श्वान प्रेम की भाषा भी जानता है, अपने स्वामी के पास प्रसन्न होकर पूँछ हिलाकर पहुँच जाता है और स्वामी की आज्ञा में चलता है। ज्ञानियो! भद्र-परिणामों का ज्ञान तिर्यंचों में भी है, फिर नरों में न हो, ऐसा तो हो ही नहीं सकता, आप स्वयं प्रज्ञावान् हैं, अब पुरानी भूल को सुधार कर लो, कषाय दिखाकर कार्य मत कराओ, वात्सल्य दिखाकर कार्य कराना सीखो, भविष्य का ध्यान रखते हुए वर्तमान पर्याय को ही मत देखो, आप नास्तिक्यवादी तो नहीं हैं ना, जो-कि प्रत्यक्ष-प्रमाण मानने वाले हों, वर्तमान में इन्द्रिय व मन के विषयों की प्राप्ति-हेतु कुछ भी कर लो, किसने देखा नरक-स्वर्ग का भविष्य...?.... ऐसी धारणा वाले चार्वाक् यदि आप नहीं हैं, -तो मेरे मित्र! मेरी बात मान लो, अपघाती का घात करने के भी भाव नहीं करो, कर्म-फल तो सभी को प्राप्त होता ही है। ....फिर वह आपको या आप जिसे शत्रु-भाव से देखते हैं, उन्हें कर्म-फल क्या छोड़ देगा? .....ज्ञानी! ध्यान रखना- कर्म तो सभी के साथ न्याय करता है। कर्म-विपाक में कहीं भी किसी के साथ अन्याय नहीं है, जिसने जैसा-भाव किया है, उसे वैसा ही बन्ध होगा, जैसा बन्ध होगा, उसका विपाक भी तदनुसार होगा, इसमें किञ्चित् भी संशय-भाव नहीं लाना, कर्म-फल-दान-व्यवस्था किसी पुरुष-विशेष के हाथ में नहीं है, जो कि आप कहते हैं कि मेरे लिए कष्ट क्यों, अन्य के लिए सुख, ......मेरे साथ ऐसा क्यों किया जा रहा है?.... ये शब्द तभी बोले जा सकते हैं, जब कोई अन्य सुख-दुःख का कर्ता होता- पुरुष या परमात्मा? ........पर ज्ञानी! ध्यान रखना- श्रमण-संस्कृति में अन्य-अन्य के कर्त्तापन को नहीं स्वीकारा जाता। प्रत्येक पुरुष स्व-कृत कर्मों से स्वयं का कर्ता है तथा स्वयं ही कर्मों के फल का भोक्ता है, -ऐसा दसवीं कारिका में ग्रन्थकर्ता ने स्वयं ही स्पष्ट किया है, अतः तत्त्व-ज्ञानी को प्रति-क्षण राग-द्वेष भावों से स्वयं की रक्षा करना अनिवार्य है, किसी का कुछ नहीं जाएगा, पर हे रागी! तेरा भव बिगड़ जाएगा, कल्याण व अकल्याण पर के हाथ नहीं है, भो प्रज्ञ! वह तो तेरे स्वयं के हाथ है। सहजता एवं सरलता से चिन्तवन करो, जन्म-दात्री जननी भी तेरे शुभाशुभ पर कुछ नहीं कर पाएगी। जन-परिजन, पुरजन के पीछे राग-द्वेष-भाव आप करेंगे, पर ध्यान रखना- कर्म विपाक मात्र आपको अकेले ही भोगना होगा, ध्रुव आगम-वचन है, अन्य के निमित्त से राग-द्वेष ही कर सकेंगे तथा उससे हुए कर्मास्रव प्राप्त होंगे,