Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 18
में एक प्रश्न खड़ा हो सकता है कि बार-बार इस विषय को क्यों कहा जा रहा है? ज्ञानियो! ध्रुव सत्य तो यह है कि जीव के अंदर असत्यार्थ के संस्कार अनादि से विद्यमान हैं, उन्हें बार-बार कहने पर ही निकाला जा सकता है, पर के विपरीत अभिप्राय को बदलना पुरुषार्थ-साध्य कार्य है। एक घन से पत्थर नहीं टूटता, शिल्पकार बार-बार चोट मारता है, संस्कार पड़ते-पड़ते कठोर-पाषाण भी टुकड़े-टुकड़े होकर टूट जाता है। कोमल रस्सी के पुनः-पुनः घर्षण से शिला पर भी निशान आ जाते हैं, उसीप्रकार अनेक भवों के विपरीत अभिप्राय को परिवर्तन कराने के लिए पुरुषार्थ तो करना ही पड़ता है। एक भव में कोई नहीं संभल पाया, तब भी दुःखित होने की आवश्यकता नहीं, तब भी यह विचार नहीं करना कि पुरुषार्थ व्यर्थ गया। ज्ञानी! पुरुषार्थ व्यर्थ नहीं गया, कठोरता में निशान आने के संस्कार में भी समय लगता है, उसीप्रकार जिन जीवों ने अनादि मिथ्यात्व को ही पूजा है, उन्हें बदलने में समय तो लगता है, पर अपने सम्यक् पुरुषार्थ में न्यूनता नहीं लाना, वीरों का कार्य तो होकर ही रहता है, अनादि की अविद्या का नाश होने में समय तो लगेगा, पर आवश्यकता है बार-बार सम्यग-उपदेशों की, इसलिए बार-बार वस्तु-स्वतंत्रता का ध्यान दिलाना ही चाहिए, साथ ही यह ग्रन्थ अध्यात्म-शास्त्र है, जिसे आगम में भावना-ग्रंथ भी बोला जाता है। भावना का अर्थ ही यह है कि जिसे बार-बार भाया जाए, इसलिए यहाँ पर बार-बार वस्तु-स्वतंत्रता का कथन करने का उद्देश्य है, जिससे अनादि के पर-भावों में निजभाव के मनाने की परम्परा का नाश हो जाये और निज सत्यार्थ-भाव पर ही जगत् का लक्ष्य स्थिर रहे। परम सत्यार्थ की चर्चा प्रारंभ करते हैं, लोक का ज्ञान मोह-बद्धता से युक्त है, उसकी कर्म-बन्धता पर दृष्टि नहीं है, नीति की बात कर लेता है, जीव क्या कहता है? मेरा भी भाग है? .......अमुक वस्तु में से, आपको मुझे देना चाहिए, -ऐसा कहकर विसंवाद करता है, राग-द्वेष की वृद्धि करता है, ....पर ज्ञानियो! ध्यान दो- जो हिस्से की बात करते समय नीति की भूतार्थता को तो देख रहा था, लेकिन विसंवाद के कारण जो अशुभ भाव हो रहे थे, वे अत्यन्त हेय-भाव थे, उनकी अभूतार्थता पर दृष्टि नहीं गई, स्वयं को कुशल स्वीकारता रहा कि मैं अन्य से अपना हिस्सा लेने के लिए स्व-प्रज्ञा का कितना सुन्दर प्रयोग करना जानता हूँ, पर मुमुक्षु भूल गया कि हिस्सा तो लाभान्तराय-कर्म के क्षयोपशम से मिलेगा, यदि वह नहीं है, तो विश्वास रखो कि विसंवादों से द्रव्य मिलता होता, तो-फिर सभी लड़ने वाले सम्पन्न ही होते और व्यर्थ में अर्थ के लिए पुरुषार्थ क्यों करते?