Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 19
क्या जाता है?... तन से किया गया धर्म मन के अभाव में तो मात्र अकाम-निर्जरा का ही कारण बनता है, मोक्ष-मार्ग में साक्षात् कारण-भूत संवर-पूर्वक होने वाली अविपाकनिर्जरा का कारण नहीं बन सकता। अहो विद्वानो! किंचित् स्व-कल्याण के बारे में भी विचार तो कर लिया करो, आप-लोग समाज, देश, राज्य, श्रावक यहाँ तक कि श्रमणों की चिन्ता में भी श्रम कर रहे हो, पर तुम्हारा श्रम थकान के लिए ही दिखता है, यदि स्वयं के लिए श्रम करते होते, तो एक श्रेष्ठ श्रमण बनकर भगवत्ता को प्राप्त हो गये होते। मेरे मित्र! इतना तो स्वीकार कर लो कि पर के लिए किया गया उपादेय-भूत चिन्तवन भी परमार्थ से तेरे लिए तो हेय ही था, अभूतार्थ ही था, उससे स्वयं के लिए पुरस्कार में अभिनव कर्मास्रव प्रचुरता से बन्ध ही है, किञ्चित् शुभास्रव भी हो सकता है, पर वह इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, आप-जैसे ज्ञानी पुरुष आत्म-उपादेयता को न समझ सके, तो अब अन्य पर विचार क्या करें?.... इस बात पर सिद्धान्त परम-सत्य-पूर्वक अपना निर्णय दे रहा है कि शास्त्र-ज्ञान एवं आत्म-ज्ञान दोनों भिन्न हैं, आत्म-ज्ञानी उसी दिन होता है, जिस दिन विषय-कषायों को परिपूर्ण-हेय स्वीकार कर परम-उपादेयभूत जैनेश्वरी दीक्षा के लिए अग्रसर हो जाता है, जब लोक अति-हेय-भूत विषयों की नाली का कीड़ा बनकर उसी में मग्न था, जिसप्रकार नाली में पूंछ वाले कीड़े होते हैं, उसीप्रकार ये भोगी नर-विषय की नाली में मान की भूख रखने वाले बिना पूँछ वाले कीड़े-जैसे हैं। अहो! धिक्कार हो, हाय-हाय! क्या कहूँ! कहने पर, लिखने पर मुख एवं कलम को तो लज्जा आने लगती है, पर रागी के अन्दर जब विषयों की ज्वाला स्फुटित होती है, तब इसे किञ्चित् भी लज्जा का भान नहीं होता, हाय-हाय! अकरणीय कृत्य को भी कैसे कर-बैठता है?... फिर जाति-वंश-कुल-पद-मान-प्रतिष्ठा को भी भूल जाता है, अनेक वर्षों की अर्जित साधना एवं प्रतिष्ठा क्षण-मात्र में नष्ट कर-बैठता है, विज्ञता, दक्षता कहाँ चली जाती है?... जो प्रज्ञा अनेकों के लिए हेय-उपादेय की परिचारिका थी, उस समय कहाँ भेज दी थी, जब स्वयं हीन जड़-बुद्धि वस्तु के तुल्य पर के सामने अपने शील-धर्म को ध्वंसकर अब्रह्म-भाव को प्राप्त कर भवातीत दशा को ठोकर मारकर भव-भ्रमण को निमंत्रण दिया, वह भी बुद्धि-पूर्वक?... लोक-प्रतिष्ठा से सत्य की पहचान तो नहीं हो सकती, यश-कीर्ति नाम-कर्म के उदय से यश भी प्राप्त हो जाय, परन्तु यशःकीर्ति से पूर्व-बद्ध-कर्म का अभाव और अभिनव कर्मों के आगमन का अभाव तो नहीं होता। .....पर-पीठ का माँसभोजी-जैसा होता है, कोई आत्म-ज्ञानी नहीं हो सकता। यानी पर-निन्दा करने वाले की आत्म-प्रशंसा भी मोक्ष-मार्ग में उपादेय नहीं है। ज्ञानियो! वात्सल्य-भाव-पूर्वक