Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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श्लो. : 19
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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होता है, जिस पर सम्यक्चारित्र की नौका चल रही है और नय-प्रमाण की दो पतवार सम्यग्ज्ञान हैं, आत्म-धर्म नाविक है, जिस पर आत्म-पुरुष सवार है, मोक्ष-तत्त्व जिसका मार्गी है, रत्नत्रय-मार्ग है। ज्ञानियो! अहा परम-शान्त-स्वभावी आत्मपुरुष से उभय तटों को निहारते हुए आज तत्त्व-चर्चा कर लें, आत्मा एक विशाल सरिता है, जिसमें हेय-उपादेयता की लहरें उठ रहीं हैं, स्वात्मानुभूति-रूपी राजहंस नन्दित हो रहा है, आत्मानन्द-कन्द ज्ञान-घन का कमल खिल रहा है, ऐसी आत्मा-नदी में निमग्न हो जाओ। हेय-उपादेयता की चिन्तवन-धारा में मग्न हो जाओ, अज्ञ प्राणी हेय में ही उपादेय-दृष्टि बनाकर चल रहे हैं, लोक में मोह की क्या विडम्बना है! जो अर्थ-अनर्थ की जड़ है, वह पाँचवाँ पाप-परिग्रह है, जो-कि सम्पूर्ण पापों में प्रवृत्ति का कारण है, जिसे योगी-जन शीघ्र छोड़ते हैं। ज्ञानियो! धन के नाम मात्र लेने से साधु पुरुष की साधना में वैसे ही कलंक लगता है, जैसे- ब्रह्मचारी के मुख से किसी कुलटा स्त्री के नाम-उच्चारण मात्र से, लोक में उसके शील पर शंका खड़ी हो जाती है, उसीप्रकार अर्थ के राग को समझना, परम-योगीश्वर 'श्री' एवं 'स्त्री' दोनों से निज आत्मा की रक्षा करते हैं, उन्हें हेय अग्राह्य ही मानते हैं। किसी भी अवस्था में वे निर्ग्रन्थ योगी परिग्रह को उपादेय-दृष्टि से नहीं देखते, पल-पल में आत्म-स्वभाव से भिन्न द्रव्यों को पृथक्भूत को ही नहीं, अपितु आत्मा से सम्बन्ध रखने वाले कर्म नो-कर्म को भी हेय ही मानते हैं, तिल-तुष-मात्र को भी परिग्रह-भाव वाले मुनिराज होते हैं, विश्व में ऐसा शुद्ध निःसंगता का मार्ग कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता। सर्वत्र संन्यासी का भेष बनाकर भी धन-धरती के राग में लिप्त देखे जाते हैं और कर्मों के द्वारा सताये जाते हैं, जैसे- एक रोटी के टुकड़े के पीछे एक श्वान अनेक श्वानों से सताया जाता है, उसीप्रकार धन का लोभी अनेक लोगों से और कर्मों से सताया जाता है, पीड़ित होता है, फिर भी अज्ञ प्राणी उसी में लिप्त होता है और अनेक प्रकार से उस धनार्जन में अपने को सुखी समझता है; जबकि ज्ञानी-जन उसे हेय कहते हैं; पाँचों ही पाप हेय हैं, परन्तु अज्ञ-मूढ़ परिग्रह को उपादेय-भूत स्वीकारता है, यही संसार-वृद्धि और भ्रमण का कारण है, क्या कहें- यह जीव लोक की तीव्र राग-मिश्रित अज्ञानता को बन्ध के कारणों को संतुष्टि-पूर्वक करता है, सूक्ष्म एवं भूत-नय से देखें, तो अग्नि को जानने वाला अग्नि है, उसीप्रकार जो त्यागी, व्रती समाज के भोजन को ही नहीं धन को देखते हैं, तो ज्ञानी उनका हृदय धन-मय है, तत्काल में आयुबन्धका अपकर्ष-काल आ जाए, तो मुमुक्षुओ! बहु-आरंभ-परिग्रह का परिणाम नरक-गति का बन्धक होता है, सभी परिग्रह को हेय-बुद्धि से पिता जी के यहाँ से