Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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श्लो. : 17
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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से पतित हुए हैं, हो रहे हैं तथा होंगे, वे सब कषायी ही थे, कषायी ही हैं एवं कषायी ही होंगे। ध्यान रहे कि द्वीपायन-जैसे घोर साधक, चतुर्थकाल-जैसे सुकाल को प्राप्त होकर भी अशुभ दशा को प्राप्त हुए, वशिष्ठ मुनि कषाय के उद्रेक में निदान बन्ध करके अशुभ दशा को प्राप्त हुए। संसार-नाश का साधन जैसे रत्नत्रय-धर्म है, उसीप्रकार संसार-वृद्धि का कारण कषाय-भाव है। जहाँ-जहाँ जितने-जितने अंश में कषाय है, वहाँ-वहाँ उतने-उतने अंश में बन्ध-भाव असंयम-भाव है। जैसे-जैसे कषाय-भाव उपशम-भाव को प्राप्त होता है, वैसे-वैसे ज्ञानी की निर्जरा की वृद्धि होती है, -ऐसा अर्हद्-वचन है। ज्ञानियो! सम्पूर्ण कषाय जिन दो में ही अन्तर्भूत हैं, वे हैं- राग और द्वेष । क्रोध-मान -ये दो कषाय द्वेष-रूप हैं, माया और लोभ -ये दो कषाय राग-रूप हैं। सारा विश्व इनके माध्यम से भ्रमण कर रहा है, आत्म-वैभव का भान ही नहीं है। जैसा कि आचार्य-प्रवर पूज्यपाद स्वामी ने कहा है
राग-द्वेष-द्वयी-दीर्घनेत्राकर्षण-कर्मणा। अज्ञानात्सुचिरं जीवः संसाराब्धौ भ्रमत्यसौ।।
-इष्टोपदेश, श्लो. 11 अर्थात् संसारी प्राणी इस संसार-समुद्र में अज्ञान-वश अनादिकाल से राग-द्वेष रूपी दो लम्बी रस्सियों के द्वारा खींची गई मथानी की तरह कर्मों के कारण घूम रहा है।
अहो मनीषियो! जीव समझता है कि कषाय करूँगा तो मेरा महत्त्व प्रकट होगा, पर यह विचार नितान्त असत्य है कि मेरी प्रभुता का सामने वाले को भान होगा, ध्रुव सत्य तो यह है कि प्रज्ञावान् आपकी प्रज्ञा की विपरीतता को अवश्य जान लेता है कि यह व्यक्ति स्व-बुद्धि का प्रयोग काषायिक भाव में नष्ट कर रहा है, बेचारे को कर्म-बन्ध-प्रक्रिया का ज्ञान नहीं है, संसार-भ्रमण कराये जाने के साधनों से अपरिचित है, यदि ज्ञानी होता, तो स्वयं संसार-भ्रमण के कारणों को क्यों उपस्थित करता, स्व-हस्त से स्व-पाद पर कषाय के अस्त्र का उपयोग क्यों करता, इससे ध्वनित होता है कि यह पुरुष अज्ञान-दोष से दूषित है, इसलिए बन्दर-जैसा लाल-मुख कर रहा है, जिस मुख से वात्सल्य, प्रेम, अनुराग की बूंदें टपकती हों, उस मुख पर क्रोध-कषाय-रूपी विष का सागर क्यों झर रहा है? .........कषायी से भयभीत तो हुआ जा सकता है, पर कषायी के प्रति आस्था की नीव नहीं रखी जा सकती, जिस पर ज्ञान-चारित्र का प्रासाद खड़ा किया जाता है, रत्नत्रय का भवन तो अकषायी भाव पर ही स्थित होता है। कषाय का मुख साधु-पुरुषों को अच्छा कैसे लग सकता है,