Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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श्लो. : 13 एवं 14
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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प्रदान करेगा, तभी चारित्र-विशुद्धता से विकसित करना होगा। चारित्र किसी भी अवस्था में अपूज्य नहीं होता, यह परम-पूज्य ही रहता है। श्रमणों का मार्ग मोक्ष के श्रम का मार्ग है, ब्रह्म की प्राप्ति खेलने-खाने से नहीं होती, बाल-लीला नहीं समझना, ब्रह्म-विलास तभी संभव है, जब भोगों की विलासता का विराम होगा। निज-स्वानुभव का पुरुषार्थ अविराम चलेगा। भेष-मात्र को चारित्र नहीं समझना, भेष-परिवर्तन तो जीव अनादि से करता आ रहा है, चारित्र तो भावों का परिवर्तन है, जिनवाणी भावों के परिवर्तन का निर्मल साधन है। चारित्रवानो! चारित्र को जीवन्त रखना चाहते हो, तो सतत श्रुताभ्यास करो एवं निर्दोष समान-गुण-वालों में स्व को सँभालना वर्तमान में कठिन है, एकाकी-विहार से आत्मा की रक्षा करो, एकल-विहार करके पंचमकाल में निर्दोष-संयम-साधना संभव नहीं है, आगम-आज्ञा है। संघ के साथ रहकर निःसंगता को प्राप्त करो, संग (परिग्रह) में रहने वाला निःसंगता/अपरिग्रह को प्राप्त नहीं हो सकता और निःसंग हुए बिना भूतार्थ-बोध अर्थात् तत्त्व की बोधि संभव नहीं है, भूतार्थ प्राप्त करके ही बोधि की प्राप्ति होती है, यही सम्यक् व्यवस्था है। अज्ञान-पूर्वक धारण किया गया चारित्र सम्यकपने को प्राप्त नहीं होता, सम्यग्ज्ञान के उपरान्त ही चारित्र को धारण करना सम्यक है। जो व्यक्ति ज्ञान के अभाव में चारित्र धारण कर लेते हैं, वे नाश को प्राप्त होते हैं, शास्त्र-ज्ञान के साथ विवेक-ज्ञान, भेद-विज्ञान होना चाहिए। सत्यार्थ समझना चाहिए कि ज्ञान-शून्यता में बोध-बोधि दोनों का अभाव होता है। साधक निज-स्वभाव समझे बिना क्या साधना को निर्दोष पाल सकेगा? . .........आचार्य-प्रवर वादीभसिंह स्वामी ने तत्त्व-बोध-विहीन व्यक्ति को निर्ग्रन्थ-मुद्रा में भी शोभा-विहीन कहा है। यथा- .. "तत्त्वज्ञानविहीनानां नैर्ग्रन्थ्यमपि निष्फलम्" ।।
–क्षत्रचूड़ामणिः अर्थात् तत्त्व-ज्ञान-रहित जीवों के परिग्रह का परित्याग, मुनित्व भी फल-रहित होता है। सत्यार्थ-ज्ञान से स्वयं निर्णय करना चाहिए, ज्ञान-हीन की क्रिया विनाश को प्राप्त होती है, क्रिया-हीन का ज्ञान भी नाश को प्राप्त होते हैं, ज्ञान-चारित्र दोनों का मिलाप ही सत्यार्थ-मार्ग का प्रदर्शक होता है।
ज्ञानियो! लोक में जिसे चारित्र संज्ञा प्रदान की जाती है, वहाँ यथार्थ में चारित्र का भेष है, चारित्र नहीं, भेष में चारित्र का उपचार कर भेष-धारण को ही जीव चारित्र-धारण कर लिया करता है। ज्ञानियो! देखो सम्यक सूक्ष्म विवेचन है, इस