Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
View full book text
________________
श्लो. : 15
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
1137
और साध्य में क्रम-भाव नियम-रूप अविना-भाव होता है। यह कारण-कार्य-विधान आगम के अनुसार सर्वत्र लगाना चाहिए। सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान का कारण है, परन्तु जिस कारण से सम्पूर्ण मोक्ष-मार्ग प्रशस्त होता है, उस कारण का भी कोई कारण है, तो ज्ञानी! सुनो- सम्यक्त्व कारण भी है, कार्य भी है। जैसे-कि पुद्गल परमाणु, कार्य भी है, कारण भी है। जब कार्य रूप होता है, तब कार्य परमाणु-संज्ञा को प्राप्त होता है, जब कारण-रूप होता है, तब कारण-परमाणु कहलाता है। तात्पर्य समझना, परमाणु जब स्कन्ध अवस्था को प्राप्त होता है, तब कार्य-परमाणु होता है, जैसेपरमाणु में कारण-कार्य-भाव है उसीप्रकार सम्यक्त्व में भी कारण-कार्य-भाव है। सम्यक्त्व जब उत्पन्न होता है, तब उसके सात कर्म-प्रकृतियों का उपशमादि अन्तरंग कारण हैं, देव-शास्त्र-गुरु का नियोग बहिरंग कारण है, उभय कारण के सदभाव में ही सम्यक्त्व प्रकट होता है। आगम के परिप्रेक्ष्य में विषय को स्पष्ट करने हेतु और समझें, जो व्यक्ति ये कहते हैं कि सम्यक्त्व तो आत्मा का गुण है, वह स्व-गुण होने से पर-सम्बन्धों की क्या आवश्यकता है? ....ज्ञानियो! यह कथन उनकी प्रज्ञा की विपरीतता का प्रतीक है, बिना द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के निमित्त से कार्य-उत्पत्ति नहीं देखी जाती, जैसे-कि बीज के अंकुर की उत्पत्ति स्व-गुण परिणमन है, तो-फिर गोदाम में रखे धान्य के बीजों में नवीन पौधे रखे-रखे प्रति-समय क्यों नहीं उगते? ....... ज्ञानियो! ध्यान रखो- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का निमित्त होना परम-आवश्यक है। बीज के लिए उत्तम क्षेत्र, उर्वरा भूमि, उगने का समय भी होना चाहिए, साथ में खाद भी उत्कृष्ट हो एवं योग्य जलवायु का होना भी अनिवार्य है, उसीप्रकार आत्मा की सहज शक्ति को भी उद्घाटित होने के लिए बाह्य कारणों की परम आवश्यकता है, जैसा कि सिद्धान्त-ग्रन्थों में क्षायिक सम्यक्त्व के लिए बाह्य साधनों का नियम उल्लिखित है।
दसणमोहक्खवणापट्ठवगो, कम्मभूमिजादो हु। मणुसो केवलिमूले गिट्ठवगो होदि सव्वत्थ।।
-गो.सा., जी., गा. 648 दर्शन-मोहनीय कर्म का क्षय होने का जो क्रम है, उसका प्रारंभ केवली, श्रुत-केवली के पाद-मूल में ही होता है तथा उसका प्रारम्भ करने वाला कर्म-भूमिज मनुष्य ही होता है। यदि कदाचित् पूर्ण-क्षय होने के प्रथम ही मरण हो जाय, तो उसकी (क्षपणा की) समाप्ति चारों गतियों में से किसी भी गति में हो सकती है। यहाँ पर शंका का