Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 15
बहिरंग हेतु हैं, अन्तरंग साता वेदनीय का उदय व लाभान्तराय का क्षयोपशम होना कारण है, शान्त परिणामों का होना कार्य है।
जिस वाहन पर जिनालय जाते हैं, उसमें चलने की योग्यता है, स्व-क्रिया-वती शक्ति से चलकर आया है, यह अन्तरंग हेतु है, परन्तु बहिरंग में वाहन के चलने के लिए तेल चाहिए पड़ता है। यदि निमित्त कुछ भी नहीं है, तो एक सहज प्रश्न है कि यह विषय आप जन्म से समझकर आये हैं या किसी प्रज्ञा के विपर्यासी ज्ञानी के द्वारा सीखे हैं, जन्म से सीखे सहज हैं, तो भव-प्रत्यय तो आपको कहा नहीं जा सकता, पर इतना अवश्य है; पूर्व की विपरीत तत्त्व-ज्ञप्ति ही आपके विपर्यास का कारण है। यदि किसी से पढ़कर बतलाते कि हमने अमुक पंडित से सीखा है कि निमित्त कुछ-भी नहीं, तो ज्ञानी का तो स्व-वचन बाधित हो गया, जैसे कोई युवा कहे कि मेरे पिता-श्री बाल-ब्रह्मचारी हैं, ज्ञानी! जब पिता-श्री बाल-ब्रह्मचारी हैं, तो तू कैसे आ गया, यह स्व-वचन-बाधित विषय है। ज्ञानियो! जो कार्य-कारण-भाव नहीं स्वीकारता, वह आगम-बाधित भी है, जैसे-कि चतुर्थ गुणस्थान में असंयत-सम्यग्दृष्टि कहा है, फिर उसे चारित्र-युक्त कहना अथवा पाप-कर्म से मोक्ष मिलता है, -ऐसा मानना हिंसा कर्म में धर्म मानना, आदि विषय-विचार आगम-विरुद्ध हैं। उसीप्रकार आगम-वचन है कि कारण के बिना कार्य नहीं होता, फिर भी कारण को नहीं मानना, यह आगम-विरुद्ध कथन है, जो आगम-विरुद्ध भाषण करता है, वह स्व-समय से बाह्य है, -ऐसा समझना चाहिए। जगत् में लौकिक एवं पारमार्थिक, -ऐसा कोई कार्य नहीं है, जो-कि कारण के अभाव में सिद्ध होता है।
जैसे-कि किसान बीज डाले बिना फल की प्राप्ति करता है क्या?... देशना-लब्धि के बिना अधिगम-सम्यक्त्व भी नहीं होता, यहाँ ज्ञानी! तत्त्व को विशदता से समझो, निसर्ग-सम्यक्त्व जो है, वह वर्तमान अपेक्षा से ही है, परन्तु भूत-प्रज्ञा-पन नय से वह भी अधिगम करणानुयोग से निसर्ग से है; विचार करें, सात कर्म प्रकृतियों का क्षय, क्षयोपशम, उपशम कारण है तथा क्षायिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक सम्यक्त्व कार्य है। यह कारण-कार्य व्यवस्था त्रैकालिक शाश्वत है; जैसे- नाना जीवों की अपेक्षा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र शाश्वत है, उसीप्रकार कारण-कार्य-व्यवस्था है अथवा यों कहें कि लोक शाश्वत है, उसका कभी नाश होने वाला नहीं है, उसीप्रकार कारण-कार्य का नाश होने वाला नहीं है, अज्ञ प्राणी आत्मा को मिथ्यात्व से दूषित कर सकते हैं। पंच समवाय का अभाव तो नहीं कर पाएँगे, कर