Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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श्लो. : 12
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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की प्रतीति या कथन करने पर आत्मा के ज्ञान को पृथक करके आत्मा कर्ता और ज्ञान करण बनता है। .......... न पर्याय से विशिष्ट तथा कथञ्चित् अवस्थित, ऐसा जो ज्ञान है, वही परिच्छित्ति-विशेष अर्थात् फल-रूप से उत्पन्न होता है, अतः प्रमाण और फल में अभेद भी स्वीकार किया है। कर्तृ-साधन आदि की अपेक्षा भी प्रमाता आदि में भेद होता है, साधकतम स्वभाव-रूप-करण होता है, इसमें प्रमाण करण बनता है।
__ "प्रमीयते येन इति प्रमाणम्।"
"कर्तृ-साधन यः प्रमीयते सः प्रमाता" इसप्रकार स्वतंत्र स्वरूप वाले कर्ता की ही विवक्षा होती है। भाव-साधन में स्व-पर की निश्चयात्मक ज्ञप्ति क्रिया दिखायी जाती है- "प्रमितिः प्रमाणम्" यह फल-स्वरूप है। इसतरह कथञ्चित् भेद स्वीकारने से ही कार्य-कारण-भाव सिद्ध होता है, कोई विरोध नहीं आता। पर-वादी का कहना है कि आत्मा से पृथक् क्रिया को करने वाला प्रमाण होता है, क्योंकि यह कारक है, जैसेबसूला आदि कारक होने से कर्ता पुरुष से पृथक क्रिया को करते हैं, इस पर हम जैन का कहना है कि यदि आत्मा से प्रमाण को कथञ्चित् भिन्न सिद्ध करना है, तो सिद्ध साध्यता है, क्योंकि हम जैन ने भी अज्ञान-निवृत्ति को प्रमाण का धर्म माना है और हानादिक उसके (धर्म) कार्य माने हैं, अतः प्रमाण से फल के प्रमाता का कथञ्चित् भेद मानना इष्ट है। यदि इन प्रमाणादि में सर्वथा भेद सिद्ध करेंगे, तो साध्य में बसूले का दृष्टान्त साध्य-विकल ठहरेगा, इसी को स्पष्ट करते हैं- बसूला आदि द्वारा काष्ठादि की छेदन-क्रिया होती है; इस क्रिया को देखते हैं, तो वह छेद्य-द्रव्य काष्ठादि में अनुप्रविष्ट हुई ही सिद्ध होती है; बसूला लकड़ी में प्रवेश करके छेदता है, यह जो प्रवेश हुआ है, वह स्वयं बसूले का परिणमन है या धर्म है, अर्थान्तर नहीं, अतः शंकाकार का जो कहना था कि कर्त्ता आदि से करण पृथक् भिन्न ही होना चाहिए, प्रमाता आदि से प्रमाण भिन्न ही होना चाहिए, –यह कहना उसी बसूले के सिद्धान्त से बाधित होता है, इस कथन से यह सिद्ध होता है कि प्रमाण और फल में कथञ्चित् भेद और कथंचित् अभेद है। उनमें न सर्वथा भेद है और न सर्वथा अभेद है; सर्वथा भेद मानने पर भी यही दोष आता है, अतः प्रमाण और फल में कथञ्चित् भेद और कथञ्चित् अभेद मानना ही श्रेयस्कर है। अनेकान्त सिद्धान्त भी यही कहता है।।१२।।
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