Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
View full book text
________________
122/
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 13 एवं 14
श्लोक-13 एवं 14
उत्थानिका- यहाँ पर विनयवन्त शिष्य स्वात्म-हित हेतु आचार्य-वर्य से पृच्छना करता है- अहो भगवन्! दसवीं कारिका में मुक्त-आत्मा को कर्मों का कर्ता कहा था, पर साथ में यह भी कहा था कि अन्तरंग व बहिरंग उपायों के माध्यम से जीव स्वयं मुक्त होता है। वे उपाय कौन से हैं? .....जानना चाहता हूँ, भगवन्!......... . समाधान- आचार्य-भगवन् कहते हैं- सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र इत्यादि अन्तरंग उपाय हैं, जिनमें ग्यारहवें एवं बारहवें श्लोक में सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान के स्वरूप को कह दिया है, अब सम्यक्चारित्र के स्वरूप को कहते हैं
दर्शन ज्ञान पर्या येणू त्तरोत्तरभाविः । स्थिरमालम्बनं यद्वा, माध्यस्थ्यं' सुख-दुःखयोः ।। ज्ञातादृष्टाऽहमेकोऽहं, सुखे दुःखे न चापरः ।
इतीदं भावनादाढ्य, चारित्रमथवा परम् ।। अन्वयार्थ- (उत्तरोत्तरभाविषु) उत्तर-उत्तर यानी आगे-आगे या उन्नत-उन्नत होने वाली, (दर्शनज्ञानपर्यायेषु) सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की पर्याय में, (स्थिरम्) स्थिर, अचल रूप से, (आलम्बनम्) करना/ठहरना, (यद्वा) अथवा, (सुखदुःखयोः) कर्म उदय से होने वाले सुख-दुःख में, (माध्यस्थ्य) माध्यस्थ-भाव होना, (अहं) मैं, (एक:) अकेला हूँ, (च) और, (अपरः) मेरा कोई दूसरा, (न) नहीं है, (सुखे-दुःखे) सुख-दुःख में, (ज्ञाता-दृष्टा) मैं ज्ञाता-दृष्टा यानी जानने-देखने वाला हूँ, (इति इद) इसप्रकार यह, (भावनादाय) आत्म-भावना की दृढ़ता, (अथवा) या, (परम्) उत्कृष्ट वीतरागभाव, (चारित्रम्) सम्यक्चारित्र है। [13-14 ।।
परिशीलन- आचार्य-प्रवर अकलंक स्वामी दो कारिकाओं में चारित्र का विशद वर्णन कर रहे हैं। दुःख से मुक्त होने का उपाय चारित्र ही है; सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान
1.
अन्यत्र 'माध्यस्थ्यं' के स्थान पर 'माध्यस्थ' पाठ भी कुछ विद्वान मानते हैं, पर व्याकरणिक संरचना, अर्थ की ___ संगतता एवं बहु-प्रति-उपलब्धता की दृष्टि से 'माध्यस्थ्यं' पाठ ही ग्राह्य है। 2. अन्यत्र 'परं' के स्थान पर 'मतम्' पाठ भी कुछ विद्वान् मानते हैं, पर वह भी अर्थ की संगतता एवं
बहु-प्रति-उपलब्धता की दृष्टि से उचित नहीं लगता ।