Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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श्लो. : 10
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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ज्ञानियो! बड़ी सहजता से एक बात ध्यान देने योग्य है, जो आपके लिए दुःख-रूप निमित्त बन रहा है, वह अन्य के लिए तेरे ही देखते हुए सुख-रूप निमित्त बन रहा है, यदि सामने वाला दुःख-रूप ही निमित्त होता, तो अन्य को भी उसके द्वारा दुःख होना चाहिए था, इसका गंभीर तत्त्व खोजिए। यानी-कि मेरे लिए दुःख का साधन जो है, वह-भी मेरे ही कर्मों का उदय है, मैंने पूर्व में उसके लिए दुःख-साधन उपस्थित किये थे, वही सामने फलित हो रहे हैं; जैसे-कि गुरुदत्त भगवान् के लिए कपिल ब्राह्मण उपसर्ग का कारण था, उसने रुई लपेट कर अग्नि लगा दी, वर्तमान में यही दिखता है कि कपिल ब्राह्मण ने योगीराज को कष्ट दिया, पर ज्ञानी! भूत-पर्याय पर एक क्षण को अपनी पवित्र दृष्टि को तो ले जाओ, महायोगी की कथा करने का प्रयोजन है कि पुनर्भव को आप मानते हैं आस्तिक हैं तो, पूर्वकृत कर्मों का विपाक भी स्वीकार करना ही होगा। ध्रुव सत्य है, बिना स्व-कृत कर्मों के अन्य कोई कष्ट का कारण हो ही नहीं सकता, सुख के साधन भी तभी मिलते हैं, जब स्वयं का पूर्वकृत-पुण्य फलीभूत होता है। गुरुदत्त स्वामी ने क्या किया था ऐसा, जो-कि उनके तन में अग्नि की ज्वाला भभकी। अहो क्या कहूँ ? .....वैभव, युवा अवस्था, राज्यपद -इन तीनों में से एक-एक ही व्यक्ति को उन्मत्त बना देता है, फिर जिसे सभी मिल जाएँ, तो-फिर क्या कहना? .....गुरुदत्त स्वामी हस्तिनापुर नरेश थे, उनकी ससुराल चन्द्रनगर में थी, जो-कि वर्तमान द्रोणगिरि पर्वत की तलहटी में खण्डहर के रूप में दिखता है। पर्वत पर जो वर्तमान में गुफा है, उसमें एक सिंह का वास था, नगर के लोग वनराज से डरते थे, पर यह कोई नहीं समझता था कि वनराज में भी जिनराज विराजते हैं, भगवान् महावीर स्वामी भी तो पूर्व-पर्याय में वनराज ही तो थे, वे ही अन्तिम तीर्थेश जिनराज हुए हैं। ज्ञानियो! जब गुरुदत्त अपनी ससुराल आये, उन्होंने नगर-वासियों के भय का कारण जानकर सिंह की गुफा में ईंधन भरकर आग लगा दी थी। आर्तध्यान से मर कर वही सिंह कुपित ब्राह्मण हुआ है, पूर्व-वैर के कारण आज उसने मुनि-अवस्था में गुरुदत्त स्वामी के शरीर में रुई लपेटकर अग्नि लगायी है। तत्-क्षण ध्यान लगाकर क्षपकश्रेणी आरोहण कर मुनिराज कैवल्य को प्राप्त हुए, देवों ने आकर कैवल्य-ज्योति की आराधना की। तभी केवली भगवान् ने कपिल के बारे में पृच्छना की, तब भगवान् ने अपनी दिव्य-देशना में कहा कि यह मेरा ही पूर्वकृत-कर्म था, मैंने इसे सिंह की पर्याय में जलाया था, उस वैर के संस्कार-वश इसने मेरे तन में अग्नि लगायी है,