Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
View full book text
________________
श्लो. : 11
फलित तब होता है, जब आपका वक्तव्य आगम को आगम-रूप से प्ररूपित करे । उसीप्रकार से जब अनागम का आप कथन करेंगे, आगम का अपलाप करेंगे, तब ज्ञानी! तीव्र अशुभ कर्म का आस्रव होगा। अनुवीचि - भाषण का प्रयोग करने वाला ही समाधि की साधना को प्राप्त करता है । जो आगम के विरुद्ध भाषण करते हैं, वे वर्तमान में भले ही पूर्व पुण्य के नियोग से यश को प्राप्त हो रहे हों, परन्तु अन्तिम समय कष्ट से व्यतीत होता है, साथ ही भविष्य की गति भी नियम से बिगड़ती है ।
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
/ 105
अहो प्रज्ञ! पुद्गल के टुकड़ों के पीछे आगम को तो नहीं तोड़ना, विश्वास रखो, यदि आप जैन हैं और .... जैन सिद्धान्तों पर आस्था है, तो आगम के विपर्यास करने से एवं यश-पूजा की आकांक्षा से ये कुछ भी प्राप्त नहीं होते, ये जो तुझे बुद्धि, यश, पूजा प्राप्त हो रही है, धन भी मिल रहा है, विद्वानो! वह आपके पूर्व के लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त हो रहा है, जिनवाणी के विरुद्ध आलाप का फल तो दुर्गति ही होगी। फिर भी आपको जो स्वीकार हो, तो वैसा आप करें। मेरा तो इतना ही कहना है कि इस पर्याय को व्यर्थ में न जाने दें, फिर भविष्य में प्राप्त हुई न हुई । एकान्त-पक्ष चाहे श्रमण का हो, चाहे श्रावक का, दोनों से भिन्न प्रवृत्ति करो, जो स्याद्वाद्-वाणी कहती है, वैसा ही प्रतिपादित करें। सत्यार्थ-आगम-प्ररूपक की दुर्गति नहीं हो सकती तथा विपरीत-कथन करने वाले की दुर्गति ही होती है। अब निर्णय स्वयं कीजिए कि क्या करना है ?... मूलाचार जी में गुरु के प्रतिकूल चलने वाले की असमाधि लिखी है, फिर जो जिनदेव के ही प्रतिकूल चलें, उसकी समाधि कैसी ? समाधि के अभाव में सुगति कैसी? – इन प्रश्नों का समाधान स्वयं कीजिए ?.... मेरे तो प्रश्न हैं। देखो, आगम के स्पष्ट वचनों को समझो। लोभ और लोक दोनों से मोह हटाना पड़ेगा, तभी आप सत्यार्थ करने की सामर्थ्य ला पाएँगे, दोनों में से एक भी आपके हृदय में विराजमान रहा, तो आप सम्यग्ज्ञान की व्याख्या नहीं कर पाएँगे । निज को परिपूर्णरूपेण स्वतंत्र स्वीकार करके जो कथन करता है, यथार्थ मानें कि वह निर्भय होकर जिनेश्वर की वाणी बोलता है । आचार्य भगवन् वट्टकेरस्वामी जो कह रहे हैं, उसे भी देखो
जे पुण गुरुपडिणीया बहुमोहा ससबला कुसीला य । असमाहिणा मरते, ते होंति अनंत-संसारा ।
- मूलाचार, गा. 71
अर्थात् जो पुनः गुरु के प्रतिकूल हैं, मोह की बाहुलता से सहित हैं, सबल-अतिचारसहित चारित्र पालते हैं, कुत्सित आचरण वाले हैं, वे असमाधि से मरण करते हैं और अनन्त-संसारी हो जाते हैं ।