Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो . : 11
श्लोक-11
उत्थानिका- आचार्य-श्री से अन्तेवासिन् पूर्वकारिका के श्लोक में जिज्ञासा करता है कि स्वामिन्! शुद्धात्मोपलब्धि के उपाय क्या हैं?..........
समाधान- आचार्य-भगवन् शिष्य-बोधनार्थ आभ्यन्तर-उपाय बतलाते हैं___ सदृष्टिज्ञानचारित्रमुपायः' स्वात्मलब्धये ।
तत्त्वे याथात्म्यसंस्थित्य मात्मनो दर्शनं मतम्।। अन्वयार्थ- (स्वात्मलब्धये) अपना शुद्ध-आत्म-स्वरूप प्राप्त करने के लिए, (उपायः) अन्तरंग उपाय, (सदृष्टि-ज्ञान-चारित्रम्) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र है, (तत्त्वे) आत्म-तत्त्व में, (यथात्म्यसंस्थित्यम्) यथार्थ श्रद्धान, (आत्मनः) आत्मा का, (दर्शन) सम्यग्दर्शन, (मतम्) माना गया है।।11।। ___ परिशीलन- लोक में अनेक पदार्थ दृष्टिगोचर हो रहे हैं, जो-कि रागियों के नयनों में निवास कर रहे हैं अथवा यों कहें कि उनके नयन पदार्थों में वास कर रहे हैं, दोनों ही बातें सम्यक् हैं। अहो! राग की महिमा तो देखो- परम समरस से भारी निज-आत्मा उसे जीव नहीं देख पा रहा है, पर-पदार्थों में इतना निमग्न है कि वहाँ किञ्चित् भी अपना ध्रुव लक्ष्य ही नहीं ले जा पा रहा है। नेत्रों को अच्छा लगे, तो उनके संचय में सम्यक्-आस्था का व्यय कर रहा है, इस अल्पधी को यह ज्ञात ही नहीं है कि मेरा ध्रुव ज्ञातव्य क्या है? .....चर्म-चक्षु का विषय ध्रुव-दर्शन का विषय नहीं है, ध्रुव-दर्शन तो आत्म-दर्शन है। सम्यग्दर्शन-शून्य-व्यक्ति नेत्र-सहित-अन्ध-तुल्य ही हैं, नेत्र तो हैं, पर ज्योति नहीं है। ज्योति-विहीन नेत्र पदार्थों को नहीं जान पाते, उसीप्रकार श्रद्धा-विहीन वस्तु-तत्त्व को नहीं समझ पाता। मिथ्यादृष्टि जीव नेत्रों से युक्त होकर भी दीर्घ संसारी है, सम्यग्दृष्टि चर्म-चक्षुओं से रिक्त होने पर भी मोक्ष-मार्गी ही है।
1. अन्यत्र उपायः के स्थान पर मुपाया पाठ भी मिलता है पर वह व्याकरणिक दृष्टि से समुचित-सा नहीं लगता
है। सम्भव है कि लिप्यंकन-कर्ता के प्रमाद से उपाय की जगह मुपाया अंकित हो गया हो। 2. इसी तरह संस्थिति के स्थान पर सौस्थिति पाठ भी अंकित मिलता है पर संस्थिति-मूलक ही पाठ
व्याकरणिक दृष्टि से समुचित है।