Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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श्लो. : 10
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
195
पुरा गर्भादिन्द्रो मुकुलितकरः किंकर इव, स्वयं सृष्टा सृष्टेः पतिरथ निधीनां निजसुतः । क्षुधित्वा षण्मासान् स किल पुरुरप्याट जगती। महो केनाप्यस्मिन् विलसितमलद्ध्यं हतविधेः ।।
-आत्मानुशासन, श्लो. 119 तात्पर्य समझना कि जिनके गर्भ के पूर्व से देवों के स्वामी इन्द्र हाथ जोड़कर किंकर-वत् खड़े हों, स्वयं सृष्टि के सृष्टा हों, यानी प्रजा को असि-मसि-कृषि-विद्यावाणिज्य-शिल्प इत्यादि षट्कर्तव्यों की शिक्षा दी थी, इसलिए स्वयं प्रजापति सृष्टि के सृष्टा थे, जिनका स्वयं का बेटा भरत इस युग का प्रथम भरतेश्वर था, यानी चक्रवर्ती था, फिर भी प्रभु छ: माह तक पृथ्वी पर भिक्षा के लिए भ्रमण करते रहे। आश्चर्य है व अलंघनीय है विधि का विधान अर्थात् कर्म की तीव्रता को कोई भी नहीं टाल सकता। ज्ञानियो! यहाँ पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जगत् में न कोई किसी को सुखी करता है, न दुःखी करता है, स्व-कृत कर्म ही जीव के शुभाशुभ रूप में फलित होता है। इस कारिका में तीन विषयों का कथन किया गया है- कर्म-कर्ता, कर्म-फल का भोक्ता एवं कर्म-बन्धन से पूर्णतया मुक्त होना। विधि का विधान विचित्र है, विधि यानी कर्म, ज्ञानियो! लोक में दुःख व सुख आने पर जड़-बुद्धि-जन ईश्वर व ब्राह्मणादि के माथे पर रख देते हैं, मुझ पर भगवान् खुश हैं, सभी प्रकार की सम्पन्नता है, तो कोई कहता है, -क्या करूँ... ईश्वर की आँख मुझ पर उठ गई है, परमात्मा भी मुझसे रुष्ट हैं। मनीषियो! यही तो पर-कर्तृत्व का मताविष्टपना है, अपने सुख का कर्ता ईश्वर, ब्रह्मा व परमात्मा को बनाना घोर अज्ञान व मिथ्यात्व हैं। किञ्चित् भी तत्त्व-ज्ञान जीव के अंदर विराजता, तो इन शब्दों का प्रयोग कर निज-अज्ञता की सूचना जगत् को न देते। भोली आत्माओ! जिस पर आप ब्रह्मा, विधि, ईश्वर आदि शब्दों का प्रयोग कर कर्त्तापन थोप रहे हैं, यथार्थ में तो समझो कि वह कौन है?... ज्ञानी! वे-सब कर्म के ही पर्यायवाची नाम हैं। शब्द-शास्त्र का भी ज्ञान होना आवश्यक है, शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं। परम दिगम्बर-देव श्री उग्रादित्याचार्यस्वामी ने महान् आयुर्वेद-शास्त्र कल्याण-कारक में कर्म के पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग इसप्रकार किया है
स्वभाव-काल-गृह-कर्म-दैव, विधातृ-पुण्येश्वर-भाग्य-पापम्। विधिः कृतांतो नियतिर्यमश्च, पुराकृतस्यैव विशेषसंज्ञा।।
- कल्याणकारक, श्लो. 12/107