Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 2
होती है, -इस प्रकार एक वस्तु में एक-साथ स्थिति, उत्पत्ति और विनाश होता है, जो कि दृष्टान्त के माध्यम से समझाते हैं यथा
घट-मौलि-सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्। शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम्।।
- आप्तमीमांसा, श्लो. 59 प्रत्येक वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वरूप है, इसी प्रकार को लौकिक दृष्टान्त से पुष्ट करते हुए आचार्य कहते हैं कि एक सोने का घड़ा है। एक व्यक्ति सोने के घड़े को चाहता है, दूसरा सोने के मुकुट को चाहता है और तीसरा व्यक्ति केवल सोने को चाहता है। सोने के घड़े को तोड़कर मुकुट बना देने से पहला व्यक्ति दुःखी होता है, क्योंकि अब घड़ा नहीं रहा, नष्ट हो गया, परंतु दूसरा व्यक्ति प्रसन्न होता है, क्योंकि मुकुट बन गया; तीसरा व्यक्ति मध्यस्थ रहता है, क्योंकि सोना घड़े के रूप में भी था, मुकुट के रूप में भी है, –ये तीनों बातें हेतु-सहित हैं, बिना हेतु के नहीं हैं। स्वर्ण-द्रव्य नित्य है और घड़ा तथा मुकुट-रूप उसकी पर्यायें अनित्य हैं। घड़े का विनाश हुआ
और मुकुट की उत्पत्ति हुई, -इस प्रकार एक वस्तु में उत्पाद, व्यय और नित्यता-रूप तीनों स्थितियाँ पायी जाती हैं।
ज्ञानियो! द्रव्य की द्रव्यता पर दृष्टि रखते हुए पर्याय के परिणमन को पर्याय-रूप समझकर राग-द्वेष का परिहार करके माध्यस्थ्य-भाव को प्राप्त होकर स्वात्म-धर्म पर लक्ष्यपात करना मुमुक्षु जीवों का परम कर्तव्य है, इसीप्रकार आचार्य-देव ने आत्मा के विभिन्न धर्मों का एक ही श्लोक के माध्यम से प्ररूपण किया है।।२।।
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भक्तिसार 1. भक्ति करने से जब बाहरी बंधन व ताले-कड़ियाँ तक टूट सकती हैं, तो
क्या भीतरी कर्म-बंध नहीं टूटेंगे? भक्ति का असली रूप पहचान लो, तभी मंजिल तक पहुँचोगे, अन्यथा संसार-रूपी मरुभूमि में ही भटकते ही रह जाओगे।।
-आचार्य श्री विद्यासागर जी