Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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श्लो . : 4
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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श्लोक-4
उत्थानिका- यहाँ पर शिष्य जिज्ञासा प्रकट करता है कि हे भगवन्! यह तो समझाएँ कि निर्विकार, चिदानन्द, एक-स्वभाव पद-रूप वह ज्ञान आत्मा से भिन्न है या अभिन्न है? .... समाधान- आचार्य-देव समझाते हैं:
ज्ञानाभिन्नो न चाभिन्नो', भिन्नाभिन्नः कथंचन।
ज्ञानं पूर्वापरीभूतं, सोऽयमात्मेति कीर्तितः।। अन्वयार्थ- (ज्ञान) आत्मा का ज्ञान गुण, (पूर्वापरीभूत) भूतकाल और भविष्यत्काल के पदार्थों को जानने रूप पर्यायों वाला है, (स अयं आत्मा) वह यह प्रसिद्ध आत्मा, (ज्ञानात्) उस ज्ञान-गुण से, (भिन्नः न) सर्वथा भिन्न नहीं है, (च) और, (अभिन्नः न) सर्वथा अभिन्न भी नहीं है, यानी एक-रूप भी नहीं है, (कथंचन) किसी अपेक्षा से (भिन्नाभिन्नः) भिन्न और अभिन्न है, (इति) इस प्रकार, (कीर्तितः) कहा गया है।।4।।
परिशीलन- स्वभाव, स्वभाववान् का वर्णन इस कारिका में आचार्य भगवन् कर रहे हैं। लोक में दो ही अवस्थाएँ हैं- एक स्वभाव, एक स्वभाववान्। दोनों एक भी हैं, अनेक भी हैं। बिना स्वभाव के कोई स्वभाववान् नहीं होता तथा बिना स्वभाववान् के स्वभाव का कोई अस्तित्व नहीं होता। लोक छ: द्रव्यों का समूह है। उन छ: द्रव्यों की स्थिति स्वभाव, स्वभाववान् रूप ही है। स्वभाव वस्तु का लक्षण है, स्वभाववान् लक्ष्यभूत वस्तु है। यदि वस्तु हो और वस्तु का कोई लक्षण न हो, तो आप स्वयं ही विचार करें, वस्तु को अन्य पाँच द्रव्यों में से एक भी द्रव्य से/को भिन्न नहीं कर पाएँगे, जब भिन्न नहीं होंगे, तो संकर-दोष खड़ा जो जाएगा, सभी द्रव्यों में एकल-भाव उत्पन्न हो जाएगा। स्वरूप-अस्तित्व का अस्तित्व ही नहीं बचेगा, स्वरूप-अस्तित्व का वर्णन पूर्व श्लोक के परिशीलन में हम देख चुके हैं, जो स्व-सत्ता का ज्ञापक है, पर-सत्ता से विभक्त करने वाला है। स्वरूप अस्तित्व का ज्ञान करता है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य-रूप नहीं है, पर क्यों नहीं है? -इस रहस्य का कर्ता कौन
1. डॉ. सुदीप जी ने 'चाभिन्नो की जगह 'नाभिन्नो पाठ दिया है, जबकि पूर्व-प्रकाशित अन्य दोनों संस्करणों में
'चाभिन्नो' पाठ ही है। 'नाभिन्नो' ही क्यों हो?.....-इसका वहाँ कोई स्पष्ट आधार भी उल्लिखित नहीं है।