Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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श्लो. : 5
चाहिए, परन्तु अन्य देवों की पूजा नहीं करना चाहिए, ऐसा कहाँ कहा गया है, मैं उनको भी मानता हूँ, लेकिन ज्ञानियो! यह मिथ्या धारणा है । तत्त्व-ज्ञानियों का कर्तव्य बनता है कि तत्त्वोपदेश इसप्रकार का होना चाहिए, जिससे प्रज्ञावान् एवं मंद- मति दोनों का अनुग्रह हो, इसलिए विधि के साथ निषेध का कथन करना अनिवार्य है, जगत् विचित्र है, उस विचित्रता का अवलोकन करते हुए ही व्याख्यान करना अपेक्षित है; यही कारण है कि पूर्वाचार्यों ने अपने ग्रन्थों में उभय- नय से कथन किया है, जो जिस नय का पात्र है, वह उस नय से तत्त्व को समझ ले, परन्तु नय को लेकर विसंवाद न करे। नय वस्तु तो है नहीं, वह तो वस्तु को समझने - समझाने की पद्धति / शैली है। अज्ञ जीव उस शैली को न समझने के कारण अनेक प्रकार के पन्थ एवं सम्प्रदायों में विभक्त हो गए। जब कि तत्त्व - ज्ञान एकत्व - विभक्त शुद्धात्म-चिद्रूप-तत्त्व को समझाता है, अल्पधी तत्त्व - ज्ञान में ही विसंवाद करके काषायिक भाव कर कर्म-बन्ध को प्राप्त होते हैं। न्याय - शास्त्रों में जो पर-मत का आश्रय लेकर चर्चा की जाती है, उसका यथार्थ उद्देश्य समझो, जो जीव-तत्त्व के विपरीत चले गये हैं, उन्हें पुनः समीचीन तत्त्व में स्थापित करना तथा प्रबल कारण यह भी है, जो तत्त्व के प्रति निर्भ्रान्त हैं, वे कहीं भ्रान्ति को प्राप्त न हो जाएँ, कदाचित् दुराग्रह से दूषित परिवर्तित हों, न हों, पर उनके छल-प्रपञ्च में अन्य भोले प्राणी न चले जाएँ, ऐसी करुणा - बुद्धि से आचार्य देव के द्वारा तर्क एवं आगम से समीचीन व्याख्या भव्यों को प्रदान की गई है । मिथ्या धारणा से आत्म-रक्षा करना अति आवश्यक है, असंयम के जीवन से मिथ्यात्व - सहित जीवन अधिक घातक है, श्रद्धा की रक्षा प्रति-पल करना चाहिए । किञ्चित् भी तत्त्व की विपरीत आस्था नहीं लेना चाहिए, इसलिए न्याय - शास्त्रों का अभ्यास परम आवश्यक है, कारण कि न्याय - शास्त्रों में सभी मतों की विपरीतता एवं स्व-मत की सिद्धि का ज्ञान भी हो जाता है। कभी-कभी स्व-मत संबंधित आचरण कर हुए भी व्यक्ति पर दर्शनों के सिद्धान्तों पर व्यावहारिक रूप से चलने लगता है, जैसे- कि सूर्य ग्रहण व चन्द्र ग्रहण के समय सूर्य, चन्द्र को देवता मानकर यह कहना कि भगवान् पर कष्ट आ गया अथवा सूतक लग गया है; आदि-आदि। मंदिर नहीं जाना, भोजन नहीं करना अथवा तत्काल मंदिर के दरवाजे बंद कर देना, यह-सब जैन सिद्धान्त के विपरीत है । आगम में ग्रहण - काल में मात्र सिद्धान्त-ग्रन्थों के अध्ययन का निषेध है, न कि भगवान् की भक्ति - वंदना का निषेध है, भगवान् की भक्ति व वंदना तो उस काल में अधिक करनी चाहिए। सूर्य व चंद्रमा ज्योतिष्क देव हैं, जो आकाश में दिखायी देते हैं, वे विमान हैं । सूर्य-चंद्र विमान के सामने जब
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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