Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 6
नहीं है, अपितु प्रत्येक द्रव्य अनेक-धर्मात्मक है, उन धर्मों को समझना प्रत्येक मुमुक्षु का कर्तव्य है। जो ज्ञाता द्रव्य के अनन्त-धर्मों को नहीं समझता, वह अज्ञानता में अनन्त-दुःखों का भाजन होता है। लौकिक दृष्टि से देखा जाए, तो एक गेहूँ के दाने में कितने गुण हैं, कितने स्वाद हैं? ......सीधा गेहूँ-सेवी गेहूँ से बनने वाले व्यंजनों के स्वाद को नहीं जान पाता और प्रज्ञावान् पुरुषों द्वारा अनेक पकवानों को सेवन करते देखकर दुःखी होता है। मुझे यह पकवान खाने को प्राप्त क्यों नहीं होते हैं?... अरे ज्ञानी! तूने स्व-प्रज्ञा का प्रयोग किया ही नहीं। जो गेहूँ तेरे घर में हैं, वे ही गेहूँ प्रज्ञावान् के पास थे, उसने अपनी प्रज्ञा के बल से नाना व्यंजन तैयार किये और तब उनके स्वाद चख रहा है, पर तूने तो प्रज्ञा की न्यूनता में भाड़ में सेककर चबा लिये हैं, तो तुझे वे स्वाद चखने को कैसे मिलेंगे?...... ___ अहो! द्रव्य तो अनन्तधर्मात्मक ही है, उन अनन्त धर्मों को समझना मुमुक्षु का कर्तव्य है। सादृश्य-अस्तित्व से एक-रूपता है, स्वरूप-अस्तित्व से अनेक-रूपता है। न सर्वथा एक ही है, न सर्वथा अनेक ही है। मिथ्यादृष्टि अज्ञ भोले जीव वस्तु को सर्वथा एक-रूप ही अथवा अनेक-रूप ही स्वीकारते हैं, क्या करें? ....उन बेचारों का क्या दोष? ....कुबुद्धि-रूप पिशाचिनी ने उनकी प्रज्ञा का हरण कर लिया है, जिसके कारण उन्हें द्रव्य एक-रूप ही अथवा अनेक-रूप ही दिखायी पड़ता है, परन्तु जिनकी प्रज्ञा को वाग्वादिनी का प्रसाद है, वह पुरुष तत्त्व का सम्यक् चिन्तवन कर वस्तुस्वरूप का निर्णय कर अपने दर्शन-ज्ञान-चारित्र गुण की रक्षा करता है।
जो वस्तु को एक-रूप ही स्वीकारता है, वह स्व-समय से बाह्य है, क्योंकि जैन सिद्धान्त से विपरीत है। ब्रह्म-द्वैतवादी एकमात्र ब्रह्म की सत्ता को ही स्वीकारता है, किसी और दूसरे की सत्ता को कहना ही नहीं चाहता। एक स्वभाव-एकान्त उनके यहाँ है। इस एक स्वभाव-एकान्त से वस्तु में अर्थ-क्रिया-कारक का अभाव होता है। अर्थ-क्रिया-कारक के अभाव से वस्तुत्व का ही अभाव हो जाता है। ध्यान दीजिएलोक में ऐसा कोई द्रव्य नहीं है, जो मात्र एक-स्वभावी ही हो अथवा अनेक-स्वभावी ही हो, प्रत्येक द्रव्य उभय-स्वभावी है। एक-रूपता में कूट-स्थता का प्रसंग आता है। नाना गुण-रूप परिणमन द्रव्य का स्वभाव है, उसका अभाव हो जाएगा। यहाँ पर यह बात पूर्ण ध्यान देने योग्य है, पूर्व प्रसंग में कही थी, पुनः कहता हूँ। यद्यपि स्व-मत की सिद्धि मात्र यहाँ की जा सकती है, परन्तु पर-मत की असिद्धि किये बिना स्व-मत की सिद्धि पूर्ण नहीं होती, श्रेष्ठ वक्ता के लिए स्व-मत का पोषण कर पर का खण्डन