Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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श्लो. : 4
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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कथंचित् भिन्न कहा है, वह सापेक्ष-कथन है, संज्ञा लक्षण व प्रयोजन को लिये हुए है, एक-दूसरे में संयोग सम्बन्ध नहीं है, एक-दूसरे में अविनाभाव सम्बन्ध है, वैशेषिक दर्शन के सदृश गुण-ग्राही का सम्बन्ध जैन-दर्शन स्वीकार नही करता, उनका कथन ना तो आगम-सम्मत है, ना ही तर्क-सम्मत है, युक्ति एवं शास्त्र दोनों से ही वहाँ विरोध है। वस्तु स्वरूप का कथन तभी सत्यार्थ होता है, जब वह युक्त और आगम दोनों से घटित होता है। __वैशेषिकों का मत है कि गुण व गुणी भिन्न ही हैं, वे संयोग-सम्बन्ध स्वीकारते हैं, आत्मा भिन्न है, ज्ञानादि गुण भिन्न हैं, कर्त्ता-कर्म-करण में भेद करके समझाते हैं; जैसे- बसूले से वृक्ष को छीला जाता है, यहाँ वृक्ष भिन्न है, बसूला भिन्न है, छीलने वाला भी भिन्न है। इसीप्रकार आत्मा ज्ञान से पदार्थों को जानती है, आत्मा जानने वाला कर्त्ता भिन्न है, जानना क्रिया है। पदार्थ कार्य है, रूप भिन्न है, और ज्ञान से जिसे जानता है, वह करण है, वह भी भिन्न है। जिसप्रकार वसूले के संयोग से देवदत्त नामक पुरुष वृक्ष को छीलता है, उसीप्रकार आत्मा ज्ञान के संयोग से पदार्थों को जानता है, ऐसा वैशेषिकों ने दृष्टान्त के माध्यम से अपना मत प्रदर्शित किया। वह दूसरा दृष्टान्त देकर पुनः जैन-दर्शन से कहता है कि आप यह तो बतलाओ कि क्या नट अपने स्वयं के कन्धे पर बैठकर खेल दिखाता है?....वह पर के कन्धे पर बैठकर ही खेल दिखाता है, उसीप्रकार ज्ञान भी स्वयं को नहीं जानता, पर को ही जानता है, यहाँ पर वैशेषिक ने दूसरे विपरीत सिद्धान्त का दृष्टान्त दिया है। एक ओर वह गुण-गुणी में सर्वथा भेद करता है, दूसरी ओर वह ज्ञान को पर-प्रकाशी मानता है, उनके मत में आत्मा स्व-ज्ञान से स्वयं को नहीं जानता, पर-ज्ञान से ही स्वयं को जान पाता है।
मनीषियो! यह विशेष रूप से वैशेषिक-मत का उन्मत्त-पना है, वस्तु स्वरूप के भूतार्थ ज्ञान से शून्यता की असीमिता का द्योतक समझना। भाषा का ज्ञान, स्वयं का चिन्तवन कभी सम्यक्-स्वरूप के प्ररूपक नहीं होते। जिसकी वाणी में स्याद्वाद का अमोघ अस्त्र न हो, तो चिन्तवन विपरीत हो सकता है, वह किसी भी भाषा में लिखा जा सकता है, चिन्तवन चित्त से चलता है, परन्तु वस्तु-स्वभाव स्वरूप से होता है, उसे कोई परिवर्तित नहीं कर सकता। देखो, जैसे- कोई अग्नि की संज्ञा शीतल करके पुकारे, तो क्या उस अज्ञ के द्वारा अग्नि की उष्णता का अभाव हो गया?... जैसे- किसी का नाम देवपुत्र है, तो क्या वह देव का पुत्र हो गया?.... जैसे- असंयमी