Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 4
जीव अपने-आपको संयमी स्वरूपाचरण में लीन कहने लगा, तो क्या वह असंयम-अवस्था में शुद्धोपयोग में लीन होने लगेगा?... अहो मुमुक्षुओ! किञ्चित् स्व-विवेक का प्रयोग तो करो, बेटे का नाम अरहंत रख लिया, तो क्या वह अरहंत हो गया?... नाम मात्र से क्या कहीं कोई अर्हता को प्राप्त होता है, यह तो भाषा का खेल है। उसी प्रकार आगम के विपरीत उत्सूत्र के प्रतिपादक लोगों के द्वारा कभी भी वस्तु-स्वरूप नहीं बदला जा सकता, विपरीत-कथन करके सु-मरण को प्राप्त न होकर दुर्गति के ही भाजन होते हैं और मिथ्यात्व के पोषक होकर दीर्घ संसार में भ्रमण करते हैं, मारीचि के समान अन्त में सत्यार्थ-मार्ग का आलम्बन लेना ही पड़ता है। यह ध्रुव सत्य है कि समीचीन मार्ग पर चले बिना सत्य-मार्ग की प्राप्ति होती ही नहीं, अतः यहाँ पर यह समझना है कि वैशेषिकों के द्वारा दिये गये तर्क तर्काभास हैं तथा उनके दृष्टान्त भी सर्व-देश घटित नहीं होते हैं, वे भी दृष्टान्ताभास हैं। अब यहाँ उक्त वैशेषिक कथित विषय की मीमांसा करते हैं- वैशेषिकों का सर्वप्रथम मत है कि गुण व गुणी सर्वथा भिन्न-स्वरूप ही हैं, –यह कहना आकाश में पुष्प-उत्पत्ति-तुल्य ही समझना; जैसेआकाश में पुष्प पुष्पित नहीं होते, उसीप्रकार गुण सर्वथा गुणी से भिन्न नहीं होते। कारक भेद-अभेद रूप होते हैं, वे मात्र न भेद-रूप ही होते हैं, न अभेद-रूप ही। कारक भेदाभेद-रूप हैं, प्रत्येक कार्य की सिद्धि में भेदाभेद-कारक लगते हैं। जो बसूले का दृष्टांत दिया है, वे भेद-कारक हैं, भेद-कारक पर का आलम्बन लेता है एवं अभेदकारक एक ही द्रव्य में घटित होते हैं। गुणगुणी में कथंचित् भेद के कारण नहीं लगते हैं, कथञ्चित होते हैं, तत्त्व-प्ररूपणा की शैली उभय-कारक है, एकांगी नहीं है। देखिए; जैसे- आपने कर्ता, कर्म, करण तीनों कारण भिन्न द्रव्य पुरुष, बसूले, एवं वृक्ष में भिन्न-भिन्न घटित किये हैं। दृष्टान्त देखिए- मिट्टी ने मिट्टी को मिट्टी के द्वारा मिट्टी के लिए मिट्टी से ही मिट्टी में घट निर्मित किया, उसी प्रकार प्रमाता ने प्रमाता को, प्रमाता के ही ज्ञान-गुण से प्रमेयों को जाना। प्रमाता यानी ज्ञाता-आत्मा, प्रमेय यानी ज्ञेय, जानने-योग्य पदार्थ, अतः यहाँ पर यह स्पष्ट हो जाता है कि एक ही द्रव्य में अभिन्नत्व में गुण-गुणी का भाव होता है, गुण-गुणी-भाव भिन्नत्व में नहीं होता, गुण-गुणी में अयुतसिद्धि है, युत-सिद्धपना नहीं है। आचार्य भगवन् कुन्दकुन्द देव ने उक्त विषय को बहुत सुन्दर शैली में समझाया है
णाणी णाणं च सदा अत्थं-तरिदा दु अण्ण-मण्णस्स। दोण्हं अचेदणत्तं पसजदि सम्मं जिणावमदं।।
-पंचास्तिकाय, गा. 48