Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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श्लो. : 3
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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अर्थात् "स्यात्" पद से युक्त नय-समूह द्रव्य के यथार्थ-स्वभाव को कहता है। सम्यक् नय और प्रमाण को युक्ति कहते हैं। जो युक्ति से शून्य है, वह तत्त्व नहीं है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने आप्त-मीमांसा की कारिका नं. 107 में कहा है कि त्रिकालवर्ती नयों और उप-नयों के विषय-भूत धर्मों का ऐसा समूह, जिनमें परस्पर में तादात्म्य हो, उसे वस्तु कहते हैं अर्थात् वस्तु अनन्त-धर्मात्मक है और एक-एक नय वस्तु के एक-एक धर्म को ग्रहण करता है, अतः सब-नयों का समूह ही वस्तु है। यदि एक नय के विषय-भूत धर्म को ही पूर्ण वस्तु माना जाए, तो वह मिथ्या है अर्थात् प्रत्येक नय का विषय यदि अन्य नय-निरपेक्ष हो, तो मिथ्या है। इसी से 'स्यात्' पद से युक्त नय-समूह को यथार्थ द्रव्य कहा है, क्योंकि 'स्यात्' पद अनेक धर्मों का सूचक है। सापेक्ष-नय ही सम्यक् नय है और 'स्यात्'-पद-शून्य-नय मिथ्या-नय है। नय और प्रमाण के द्वारा गृहीत वस्तु ही यथार्थ होती है, वही सबसे यथार्थ-युक्ति है, 'युक्ति' शब्द से उन्हीं का ग्रहण किया गया है। अतः युक्ति-पूर्वक वस्तु को स्वीकार करना चाहिए अर्थात् प्रमाण और नय के द्वारा गृहीत वस्तु ही यथार्थ है और उसे ही सम्यक् मानकर स्वीकार करना चाहिए। जो नय और प्रमाण-रूप युक्ति से शून्य है, वह अवस्तु है। आत्म-द्रव्य को समझना है, तो नय-प्रमाण के द्वारा ही समझा जा सकता है, वर्तमान में बड़े-बड़े विद्वान् तत्त्व-मनीषी आत्मा को एक-गुणात्मक ही मानते आ रहे हैं, वह गुण है चैतन्य, क्या आत्मा एक चैतन्य-स्वरूप-मात्र है? .....प्रज्ञ पुरुषों को स्व-प्रज्ञा से आगम के आलोक में आत्म-गुणों का अध्ययन करने की अति-आवश्यकता है। आत्मा चैतन्य-गुण-स्वभावी ही है, -ऐसा एकान्त नहीं है; आत्मा अचैतन्य-स्वभावी भी है। जो आत्मा को मात्र चैतन्य-स्वभावी कहता है, वह आत्म-द्रव्य का सर्वांगीण ज्ञाता नहीं है। जो भी परम-तत्त्व का ज्ञाता है, वह आत्मा को चेतन एवं अचेतन-भूत ही स्वीकारता है, एकाकी रूप से न चेतन और न अचेतन ही स्वीकारता है, तत्त्व के प्रति किञ्चित् भी विपर्यास सम्यक्त्व-गुण-घातक होता, इसलिए वस्तु पर आस्था कभी भी जीवन में एकान्त से स्थापित नहीं करना। मूर्धन्य विद्वान् भी आगम में किञ्चित् विपर्यास करके असमाधि को प्राप्त हुए हैं, समाधि-साधक के लिए पूर्वाचार्य-प्रणीत आगम-ग्रन्थों पर एवं तदनुसार कथन करने वाले वर्तमान वीतरागी आचार्य, उपाध्याय, मुनि, भगवन्तों एवं विद्वानों की बातें ही स्वीकार्य होती हैं, यदि पूर्वाचार्यों के वचनों से संबद्ध नहीं हैं, तो हमें किसी भी अवस्था में श्रद्धान नहीं करना चाहिए; फिर वैसा कथन करने वाले चाहे गृहस्थ हों अथवा त्यागी, भेष-मात्र से प्रामाणिकता नहीं होती, प्रामाणिकता आगम-वचनों से होती है। इस बात को वर्तमान