Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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श्लो. : 3
मुख्यता और गौणता की अपेक्षा एक वस्तु में विरोधी मालूम पड़ने वाले दो धर्मों की सिद्धि होती है। वस्तु अनेकात्मक है। प्रयोजन के अनुसार उसके किसी एक धर्म की विवक्षा से जब प्रधानता प्राप्त होती है, तो वह अर्पित या उपनीत कहलाता है और प्रयोजन के अभाव में जिसकी प्रधानता नहीं रहती, वह अनर्पित कहलाता है; तात्पर्य यह है कि किसी वस्तु या धर्म के रहते हुए भी उसकी विवक्षा नहीं होती, इसलिए जो गौण हो जाता है, वह अनर्पित कहलाता है । इन दोनों के बीच में "अनर्पितं च अर्पितं च" - इसप्रकार के विग्रह वाला द्वन्द्व समास है । इन दोनों की अपेक्षा एक वस्तु में परस्पर विरोधी दो धर्मों की सिद्धि होती है, इसलिए कोई विरोध नहीं है, जैसेदेवदत्त के पिता, पुत्र, भाई और भांजे भी हैं, इसीप्रकार और भी जनकत्व और जन्यत्व आदि के निमित्त से होने वाले सम्बन्ध विरोध को प्राप्त नहीं होते। जब जिस धर्म की प्रधानता होती है, उस समय उसमें वह धर्म माना जाता है। उदाहरणार्थ- पुत्र की अपेक्षा वह पिता है और पिता की अपेक्षा वह पुत्र है, आदि। इसीप्रकार द्रव्य भी सामान्य की अपेक्षा नित्य है, विशेष की अपेक्षा अनित्य है, इसलिए विरोध नहीं है, वे सामान्य और विशेष कथञ्चित् भेद हैं और अभेद की अपेक्षा से ही व्यवहार के कारण हैं, इसीप्रकार यहाँ पर आत्मा के चेतन और अचेतन स्वभाव के बारे में विचार करना चाहिए। आत्मा ज्ञान- दर्शन - स्वभाव से चेतन है और अन्य नाना गुणों की अपेक्षा अचेतन-स्वभावी भी है। उभय-दृष्टि से युगपद् देखें, तो आत्मा चेतन-अचेतन स्वभावी है, अतः एकान्त से न चेतन ही है, न अचेतन ही है, 'स्यात्' पद से हमेशा यह समझना चाहिए। जिन धर्मों की अपेक्षा अचिदात्मा है, वे धर्म प्रमेयत्वादि हैं, प्रमेयत्व आदि से शेष धर्मों को भी ग्रहण कर लेना चाहिए ।
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स्वरूप - संबोधन - परिशीलन
अस्तित्व वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुत्व, लघुत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व इत्यादि दस द्रव्यों के सामान्य गुण हैं। ये दस गुण आत्मा में घटित होते हैं; एक अपेक्षा से एक मात्र चेतनत्व-भाव जीव का स्वभाव है, तो इन दसों में से अचेतनत्व, मूर्तत्व दो गुण कम हो जाते हैं, फिर आठ गुण रहते हैं, परन्तु बन्ध के ग्रहण करने पर दसों ही सामान्य गुण आत्मा में घटित हैं । यह पूर्व में ही विदित हो चुका है कि प्रमेयत्वादि धर्मों की अपेक्षा आत्मा अमूर्तिक है तथा बन्ध की अपेक्षा आत्मा भी मूर्तिक है, आत्मा का मूर्तिक- अमूर्तिक-पना नय - सापेक्ष है, नय - निरपेक्ष नहीं है, कहा भी गया है