Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो . : 3
हैं, अपितु उपादेय हैं, लेकिन तत्त्व-निर्णय किये बिना ये अनुष्ठान पुण्यात्म-रूप आस्रव-बन्ध के कारण तो हैं और जो तत्त्व-निर्णय के अभाव में परम्परा से भी मोक्ष के कारण नहीं हैं तथा जो तत्त्व-निर्णय करके इन पुण्य-क्रियाओं को करता है, उसके धार्मिक अनुष्ठान परम्परा से मोक्ष के कारण हैं, -इसमें किञ्चित् भी शंकित होने की आवश्यकता नहीं है; लेकिन यह भी स्पष्ट समझना- तत्त्वज्ञान तत्त्व-निर्णय हुए बिना सम्यग्ज्ञान के रूप से प्रकट नहीं होता। सम्यग्ज्ञान तथा सम्यग्दर्शन का अविनाभाव सम्बन्ध है, जहाँ सम्यक्त्व होगा, वहीं सम्यग्ज्ञान होगा, जहाँ सम्यग्ज्ञान होगा, वहीं सम्यग्दर्शन होगा, अग्नि-उष्णत्ववत् । जिसप्रकार बिना उष्णता के अग्नि नहीं होती, उसीप्रकार बिना सम्यग्दर्शन के सम्यग्ज्ञान नहीं होता, पर इन दोनों के पूर्व तत्त्व-ज्ञान व तत्त्व-निर्णय होना आवश्यक है। तत्त्व-निर्णय समीचीन-नय-ज्ञान से ही संभव है। नयों में भी कुनय-सुनय का जानना भी तो अनिवार्य है। सुनय-कुनय के अन्तर को समझकर सुनय का आश्रय लेना चाहिए, कुनय को दूर से छोड़ना ज्ञानियों का कर्तव्य है। नय, दुर्नय, सुनय की परिभाषा करते हुए आगम में उल्लिखित है
अर्थस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं तदंशधीः। नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्णयस्तन्निराकृतिः ।।
_-अष्टसहस्री, 3/106वीं कारिका में उद्धृत अनेक धर्मान्तर-सापेक्ष एक अंश के ज्ञान को नय कहते हैं, और धर्मान्तरों का निराकरण करके वस्तु के एक ही धर्म का कथन करने वाले को दुर्नय कहते हैं। सुनय वस्तु-स्वरूप का यथार्थ-बोधक है, दुर्नय मिथ्यात्व-पोषक है। मुमुक्षुओं को नय का आलम्बन लेना चाहिए व दुर्नय को दूर से ही छोड़ देना चाहिए। एक-एक धर्म का कथन एक-एक नय के द्वारा होता है, नय-प्रमाण ही वस्तु-स्वरूप का प्ररूपक है, नयप्रमाण-विहीन कोई भी पदार्थ नहीं है। सब पदार्थों का एक-साथ वाचन नहीं हो सकता। व्याख्यान के लिए सप्तभंगी का प्रयोग किया जाता है, बिना 'स्यात्' पद के भूतार्थ-तत्त्व का ज्ञान नहीं होता। युक्ति से युक्त जो है, वही वस्तु है, जो युक्ति से रहित है, वह अवस्तु है; कहा भी है
सिय-जुत्तो णयणि-वहो दव्व-सहावं भणेइ इह तत्थं । सुणयपमाणा जुत्ती णहु जुत्तिविवज्जियं तच्च ।।
-द्रव्य-स्वभाव-प्रकाश, गा. 261