Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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श्लो. : 2
स्वरूप- संबोधन - परिशीलन
में एक ही रहती है, इस सिद्धान्त के अनुसार चाहे हम अपने उपयोग को परम तत्त्व में ले जाएँ, चाहे अन्य पर- कार्यों में; एक समय में एक ही कार्य हो सकता है। निर्माणकार्य व निर्वाण-कार्य दोनों के कारण भिन्न हैं, कारण से ही कार्य की भिन्नता का ज्ञान हो जाता है। यह तो सहज सिद्धान्त है कि कार्य की भिन्नता जहाँ होगी, वहाँ कारण भिन्न उपस्थित किये जाते हैं; देखो - रोटी बनाने के भाव यदि माँ के हैं, तो तवा, पानी, अग्नि से कार्य हो जाता है; वहीं पूड़ी बनानी है, तो कारण भिन्न होते हैंकढ़ाई, घृत आदि साधन-सामग्री चाहिए । मुमुक्षुओ! उसीप्रकार मोक्ष - मार्ग में समझना चाहिए, –भिन्न साधन से भिन्न साध्य की सिद्धि नहीं होती । इस द्वितीय कारिका में आचार्य-देव स्वयं हेतु हेतु-फल की चर्चा कर रहे हैं । अब स्वयं विचार करो कि रत्नत्रय-धर्म का वेष धारण करके भी यदि साधक अन्य कार्य करता है, अन्य कार्य से मेरा प्रयोजन यह समझना कि जो रत्नत्रय धर्म है, निश्चय व व्यवहार संयम का पालन करते हुए षट् आवश्यकादि मूलोत्तरगुणों के पालन से भिन्न जो भी कार्य श्रमण करते हैं, तो वे उनके लिए सभी अन्य कार्य हैं । कितनी प्रबल साधना के योग से स्व-कार्य की उपलब्धि हेतु जिन - मुद्रा धारण करने को मिलती है। ऐसी त्रिलोक- पूज्य मुद्रा धारण करके भी जीव निज परमात्म-तत्त्व के कार्य को नहीं साध सका, तो यही मानना कि सम्राट् पद पर प्रतिष्ठित होकर भी वह भीख माँगने निकला है। कितना हास्यास्पद होगा, ज्ञानी! थोड़ा-सा चिन्तवन कर, परम तत्त्व की खोज हेतु निकलने के उपरांत भी कोई जीव अपनी परिणति को विषयों के प्रति किञ्चित् भी ले जाता है, तो यही समझना कि वह झाड़ी में छुपे शिकारी - जैसा है एवं संयम की मुद्रा में चारित्र की चिड़िया का घात कर रहा है । स्व- समय की पहचान कर लो भविष्य खोटा आने वाला है। छठवें काल में न कोई परम तत्त्व को समझने वाला होगा, न समझाने वाला ही मिलेगा। अभी समय है, तब-तक अपर तत्त्वों से दृष्टि को हटाकर एकाग्र चित्त होकर स्व-परम-तत्त्व को पहचानो। वह कैसा परम-तत्त्व है? .. .." सोऽस्यात्मा सोपयोगोऽयम्” अर्थात् वह-यह उपयोगात्मक आत्मा है, आत्मा उपयोग-रहित कभी नहीं रहती, उपयोग आत्मा का धर्म है, सत्यार्थ तो यही है कि आत्मा का लक्षण अन्य नहीं है । कोई कहे कि जो खाता-पीता है, चलता है । वह जीव है, - यह परिभाषा आत्मा की सार्वकालिक नहीं है, कारण पूछना होगा- क्यों?...कारण यह है कि जो मूर्छित व्यक्ति है, वह किसी एक समय में खाता भी नहीं है, पीता भी नहीं है और चलता भी नहीं है, तो क्या वह उस समय जीवत्वपने से रहित हो गया ?......
दूसरी
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