Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 2
अस्तित्व वस्तु-मात्र है। यहाँ पर अलिंग ग्रहण विशेषण इसलिए कहा है कि वह आत्मा किसी पौद्गलिक चिह से ग्रहण नहीं किया जाता। इस विशेषण पद के अनेक अर्थ हैं, उनमें से कुछ कहते हैं- लिंग नाम इन्द्रियों का है, उन इन्द्रियों से यह आत्मा पदार्थों का ग्रहण करने वाला नहीं है, अतीन्द्रिय स्वभाव से पदार्थों को जानना है अथवा इन्द्रियों से अन्य जीव भी इस आत्मा का ग्रहण नहीं कर सकते, –यह तो अतीन्द्रिय स्व-संवेदन-ज्ञान-गम्य है। जैसे धूम-चिह को देखकर अग्नि का ज्ञान करते हैं, वैसे ही अनुमान लिंग अर्थात् चिह कर यह आत्मा अन्य पदार्थों का जानने वाला नहीं है, यह तो अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान से जानता है, इस कारण अलिंग-ग्रहण है; कोई भी जीव इन्द्रिय-गम्य चिह से इस आत्मा का अनुमान नहीं कर सकता, -इस कारण भी अलिंग-ग्रहण है। यह शुद्धात्मा केवल अनुभव-गम्य है, इसलिए ग्राह्य नहीं है। यहाँ वस्तु-स्वरूप की गवेषणा से यह निष्कर्ष निकला कि आत्मा उभयधर्मी हैग्राह्य भी है, अग्राह्य भी है, यह नय-सापेक्ष निरपेक्ष रूप से नहीं है और वह आत्मा कैसी है? ......."अनाद्यन्तः" द्रव्य की द्रव्यता त्रैकालिक है, द्रव्य का उत्पाद नहीं होता, व्यय नहीं होता, जो उत्पाद-व्यय होता दिखता है, वह पर्याय का होता है, द्रव्य की सत्ता प्रत्येक काल में विद्यमान रहती है, एक-मात्र जीव द्रव्य की ही नहीं, अपितु प्रत्येक द्रव्य की समझना; कहा भी है
सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणंतपज्जाया। भंगुप्पादधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि एक्का।। -पंचास्तिकाय, गा. 8 सत्ता उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक एक सर्व-पदार्थ-स्थित सविश्वरूप अनंत पर्यायमय और सप्रतिपक्ष है, अस्तित्व अर्थात् सत्ता, सत् का भाव अर्थात् सत्त्व। विद्यमान मात्र वस्तु न तो सर्वथा नित्य रूप होती है, न सर्वथा क्षणिक रूप ही होती है। वस्तु सर्वथा नित्य ही स्वीकारते हैं, तो पर्याय का अभाव हो जाएगा, वस्तु को सर्वथा क्षणिक मानते हैं, तो प्रत्यभिज्ञान का अभाव हो जाएगा, नित्य एकान्त में सांख्य-दर्शन का प्रसंग आता है, क्षणिक एकान्त में बौद्ध दर्शन का प्रसंग आता है। प्रत्येक तत्त्व की प्ररूपणा सप्रतिपक्ष, होती है। क्षणिक एवं नित्य दोनों ही एकान्तों के पक्ष को स्वीकार करने से वस्तु- क्रिया-कारण का अभाव दिखायी देता है। आत्मा अनादि और अनन्त रूप है। प्रत्येक द्रव्य स्व-चतुष्टय में त्रिकाल से अवस्थित है, द्रव्य का लक्षण ही सत् है :
सद् द्रव्यलक्षणम्।।
-तत्त्वार्थसूत्र, 5/29