Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो . : 2
आगम-वचन पर ही आस्था रखना चाहिए, जैसा पूर्वाचार्यों ने कथन किया है; अन्यथा उस प्रकार समझना आत्मा उपयोगमयी है, इस सिद्धान्त सूत्र से नैयायिक दर्शन की एकान्त दृष्टि का निरसन किया, जो-कि गुण-गुणी को भिन्न ही मानता है, आत्मा को ज्ञान से सर्वथा पृथक् स्वीकारने वाले नैयायिक मति वाले लोगों को यह समझना चाहिए कि जैसे- अग्नि से उष्णता को भिन्न नहीं किया जा सकता, उसीप्रकार आत्मा को ज्ञान-गुण से पृथक् नहीं किया जा सकता है। अतः आत्मा उपयोग-मयी है, –यह सिद्धान्त ध्रुव सत्य है। उपयोग लक्षण आत्मा का असाधारण गुण है, आत्मा को छोड़कर अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाता। द्वितीय विशेषण "क्रमाद्धेतुफलावहः" क्रम से कारण और उसका फल यानी कार्य धारण करने वाला है, कार्य-कारण पर भी ध्यान देना, विज्ञ-पुरुष! तत्त्व पर निर्णय करने में कार्य-कारण-भाव पर विचार करना अनिवार्य है, कारण-कार्य-भाव के ज्ञान से शून्य होने के कारण अज्ञ प्राणी क्लेश को प्राप्त हो रहे हैं। कार्य हुआ है, तो कारण अवश्य होना चाहिए। बिना कारण के कार्य होता नहीं है, चाहे दुःख हो, चाहे सुख-रूप कार्य दिखे, .....पर ज्ञानी! कार्य को देखकर निर्णय नहीं करना, कार्य के साथ कारण पर भी ध्यान देना, इसीलिए विज्ञ पुरुष तत्त्व-निर्णय कारण-कार्य-भाव को देखकर ही लेते हैं। वर्तमान दुःख पर्याय को देखकर क्लेश को प्राप्त होने की अपेक्षा एवं दूसरों को स्व-दुःख का हेतु बनाने के पूर्व दुःख कार्य के कारण को खोज लेता, तो संभवतः न उतना क्लेश होता और न ही दूसरों पर दोष देता, भौतिक कार्य-कारण-भाव के चिन्तवन मात्र से सम्पूर्ण समाधान हो जाते हैं। प्रत्येक कार्य के उभय कारण होते हैं- अन्तरंग और बहिरंग; कभी-कभी बहिरंग कारण तो व्यक्ति देख लेता है, पर अन्तरंग कारण पर ध्यान ही नहीं देता। यही कारण है कि बहिरंग कारणों को दोष देकर नवीन कर्मास्रव और-कर-लेता है। जिसका फल भविष्य में पुनः आएगा, फल आने पर बहिरंग कारण को बार-बार देखता रहेगा और कारण से कार्य, कार्य से कारण, -ऐसा होते-होते अनन्त-भव व्यतीत हो जाएँगे, पर संसार की संतति का अन्त नहीं हो सकेगा।
अहो आत्मन्! शान्त भाव से एक क्षण चिन्तवन करो, नरक पर्याय को प्राप्त एक जीव कार्य को देखकर कि वह अति-दुःख को प्राप्त हो रहा है और अन्य नारकियों द्वारा पीड़ित करने पर रोता-चिल्लाता है, कहता है कि ये मुझे क्यों पीड़ित कर रहे हैं, इनका मैंने क्या बिगाड़ा है, बिना कारण के क्यों सता रहे हैं?...-ऐसा चिन्तवन करने वाला नारकी तीव्र वेदना को प्राप्त होता है, वहीं एक मन्द-कषायी, भद्र-परिणामी, सम्यक्त्वगुण-भूषित अथवा सम्यक्त्व के सम्मुख बहिरंग कारण के साथ अन्तरंग