Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
गये हैं- पद्यानुक्रमणिका, शब्दानुक्रमणिका, संदर्भ-ग्रंथ-सूची, अज्ञातकर्तृक टिप्पण-सहित संस्कृत-टीका।
डॉ0 सुदीप जी ने एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह सामने रखा है कि स्वरूप - संबोधन के संस्कृत टीकाकार संभवतः गोम्मटसार की टीकाओं के कन्नड़ रचयिता केशववर्णी हो सकते हैं, जो ई. 1395 के लगभग हुए। उनकी गणितीय प्रतिभा देखते हुए उनकी समान रूप से न्याय में क्षमता कोई संदेह की बात नहीं है। बरट्रॅड रसैल ने गणित को प्रतीकबद्ध न्याय कहा है, तथा गणित और न्याय से सम्बद्ध विश्व में उन्होंने सर्वोच्च कोटि का साहित्य निर्माण कर नोबल पुरस्कार प्राप्त किया था । राशि - सिद्धान्त का विकास 1864 से जार्ज केण्टर द्वारा हुआ, जिसमें अनेक विरोधाभास उपस्थित किये गये तथा गणित और न्याय से संबंधित फाउन्डेशन्स का प्रारम्भ हुआ और गणितीय दर्शन की अभूतपूर्व निधि ने सभी दर्शनों को मात्र इतिहास की वस्तु बना दिया ।
आचार्य श्री विशुद्धसागर जी ने इस स्वरूप - संबोधन ग्रंथ का परिशीलन कर इसे एक मौलिक, अभूतपूर्व कृति के रूप में उपस्थापित किया है। उन्होंने मंगलाचरण, उत्थानिका, शंका-समाधान-शैली में प्रस्तुत करते हुए मंगल- भावना भायी है कि यह आराधना रूप में है। अध्यात्म के अ-स्पर्शी, तल-स्पर्शी, आत्म-स्पर्शी रूप हैं। उन्होंने अपनी गुरु-परम्परा को विशेष महत्त्व देते हुए अत्यंत विनयशील भावों को सम्यक् - ढंग से स्तुति रूप में प्रस्तुत किया है । तत्पश्चात् उनका परिशीलन खण्ड प्रारम्भ होता है। ग्रंथराज के परिशीलन का उद्देश्य इसप्रकार है- "मेरी दृष्टि में, मनीषियो ! प्रत्येक प्रज्ञ-पुरुष को इस ग्रंथराज का अध्ययन अनेक बार ही नहीं, जीवन के क्षण-क्षण में करना चाहिए ।
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यह काष्ठ-आल्मारियों की शोभा बढ़ाने के लिए नहीं है, अपितु प्रत्येक हंसात्माओं के हृदय मंदिर में स्थापित करने हेतु है ।" षड्दर्शनों का खण्डन करते हुए उन्होंने सरल शब्दों में विशुद्धि-रूप अतिशय पुण्यार्जन करने का मार्ग प्रशस्त एवं प्रोज्ज्वल किया है।
अनेक ग्रंथों से उद्धरण देते हुए उन्होंने अपने सम्यक् पक्ष को, परिशीलन को पद-पद पर पुष्ट किया है। केवल मंगल से सम्बन्धित आचरण पर उनकी धारा- प्रवाह लेखनी अनेक पृष्ठों तक जाकर भव्य श्रावकों के हृदय में दृढ़ता और निश्चलता उत्पन्न कर देती है, जो सम्यक्त्व - निधि से भरपूर है ।
अनेकान्त व स्याद्वाद शैली को अत्यन्त सरल रूप में सोदाहरण समझाते हुए आचार्य श्री विशुद्धसागर इसप्रकार निवेदित करते हैं- " ( अकलंकदेव) आचार्य प्रवर ने जगत् में मोक्ष स्वीकारने वालों को एक नया चिन्तन दिया है । अनेकान्त - दृष्टि से आत्मा मुक्त अवस्था में सर्वथा मुक्त ही नहीं है, अपितु अमुक्त भी है; परन्तु ध्यान रखना - एकान्त से अमुक्त भी नहीं हैं, यदि सर्वथा अमुक्त ही स्वीकारेंगे, तो फिर आत्मा सर्वथा, सर्वदा कर्म-कलंक से युक्त ही रहेगा और मोक्ष का अभाव हो जाएगा। इसीलिए मनीषियों को मोक्ष-तत्त्व पर अनेकान्त - दृष्टि से ही विचार करना चाहिए ।"
इसप्रकार आचार्य श्री विशुद्धसागर जी ने बालकों के समान भव्य जीवों के परिणामों को अविचल, निश्चयी एवं व्यावहारिक दृढ़ता तथा निश्चलता के प्रांगण में उतारने का अद्भुत उपक्रम किया है । जटिल पारिभाषिक न्याय के शब्दों वा पदों को स्पष्ट करने की उनकी शैली अभूतपूर्व है तथा हृदय परिवर्तन लाने में सक्षम है। यही कारण है कि उनकी प्रत्येक कृति सम्यक्त्व- जनक रूप में प्रभाव डालते हुए लोकप्रियता की ओर बढ़ती चली जा रही है ।