Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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3. इतना ही नहीं, आज धन-पिपासा की वृद्धि को देखते हुए लोक में साधु-सन्तों ने भी भोले
लोगों की वंचना प्रारम्भ कर दी है। धर्म के नाम पर भयभीत कर धन लूट रहे हैं, कोई श्रीफल को फूंक रहे हैं। कोई जीवों के कर्मों को कलशों में निहार रहे हैं, सोने-चाँदी के कलश घरों में रखकर, उनमें (लौ) लगाकर अपनी स्वतंत्रता का हनन करने में लीन हैं। नग, अंगूठी, मोती, माला इत्यादि में लगाकर सत्यार्थ-मार्ग से वंचित कर रहे हैं। अहो प्रज्ञ! सत्य बोलना कलश की आराधना क्यों चल रही है?....परिग्रह की कामना के उद्देश्य से, न कि आत्माराधना के लिए। अंतरंग भाव चल रहे हैं कि मेरी कलश-आराधना शीघ्र फलित होवे और घर में परिग्रह की वृद्धि होवे। ज्ञानी! परिग्रह बढ़े न बढ़े, वह लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से मिलने वाली वस्तु है, पर माँगने की भावना ने निःकांक्षित अंग का भी अभाव करा दिया, पर में अपना कर्त्तापन स्थापित करा दिया। जड़-द्रव्य में
चेतन का कर्त्तापन कैसा?. 5. तीर्थंकरों की परम्परा मठाधीशों की परम्परा नहीं है, तीर्थंकरों की विशद परम्परा गगन के
सदृश निर्लेप एवं निर्दोष रही है। 6. उन्होंने (कुंदकुंदाचार्य-जैसे महायोगियों ने) भवनों में आत्म-भवन का नाश नहीं किया, यह
तो गृहस्थों का धर्म है। साधु-पुरुषों का कार्य तो तप-साधना एवं श्रुत की आराधना-मात्र है। यदि साधु-संस्था इसी कापन में लीन हो गई, तो-फिर वर्द्धमान का वनवास-मार्ग, आत्मवास-मार्ग, मात्र ग्रंथों में ही मिलेगा, निग्रंथ मठों में निवास करने लगेंगे। श्रमण-संस्कृति का सत्यार्थ-मार्ग आश्रम-मार्ग नहीं है, आश्रम-विधि में षट्काय जीवों की हिंसा होती है। श्रमणों का मार्ग तो षट्काय की हिंसा से परे है। एक क्षण अहो योगियो ! चिन्तवन करें कि अपना मार्ग कितना श्रेष्ठ है, जहाँ परिपूर्ण रूप से स्वाधीनता है; न भोजन का विकल्प, न भवन का, सर्पवत् मिलता है। फिर हम क्यों दीमक बनें, जो कि स्वयं बना-बनाकर बामी को तैयार करती है, पर रहते सर्प हैं। उसीप्रकार, श्रमणो! आप उपदेश-आदेश करके बनवा जाओगे, पर धर्मशालाओं में रागी-भोगी जीव ही तो निवास करेंगे। जनक के नाम के राग के वश होकर त्रिलोक्य-पूज्य जिन-मुद्रा को क्यों टुकड़ों में नष्ट कर रहे हो?
दसवीं गाथा कर्म-सिद्धान्त विषयक जिज्ञासा-रूप है, जिसमें श्री अकलंक देव ने भव्यों के कल्याण हेतु कर्मों के कर्तृत्व-भाव, भोक्तृत्व-भाव तथा मुक्तित्व-भाव का विश्लेषण न्याय द्वारा किया है। आचार्य-श्री के परिशीलन के कुछ बिन्दु निम्नलिखित हैं1. ज्ञानियो! बड़ी सहजता से एक बात ध्यान देने योग्य है- जो आपके लिए दुःख-रूप निमित्त
बन रहा है, वह अन्य के लिए, तेरे ही देखते हुए सुख-रूप निमित्त बन रहा है। यदि सामनेवाला दुःख-रूप ही निमित्त होता, तो अन्य को भी उसके द्वारा दुःख होना चाहिए था। . इसका गंभीर तत्त्व खोजिये, यानी कि मेरे लिए दुःख का साधन जो है वह भी मेरे कर्मों का उदय है। पुनर्भव को आप मानते हैं; आस्तिक हैं, तो पूर्व-कृत कर्मों का विपाक भी स्वीकार करना होगा।